मतदाताओ के नाम खुला ख़त – (भाग-3)
कैसे मतदाता मालिक से उपेक्षित नौकर बन चुका है
?
आज कोई पार्टी अपने कार्यकर्ताओ तक की क्यों घनघोर उपेक्षा करती है ?
मनुवादी पार्टी ही क्यों ?
अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण अधिनियम पर पर मै विस्तृत लेख पूर्व में लिख
चुका हूँ तथा उसको पढने का कष्ट करे तथा देखे कि यह कितना भेदभावकारी तथा
अत्याचारपूर्ण है I
THE SCHEDULED CASTES AND THE SCHEDULED TRIBES
(PREVENTION OF ATROCITIES) AMENDMENT ACT, 2015
No. 1 of 2016 [31st
December 2015]
An Act to amend the Scheduled Castes and the Scheduled
Tribes (Prevention of Atrocities) Act, 1989.
का सन्दर्भ ले I भारत के हर नागरिक का
कर्तव्य है कि वोट डालने से पहले इस कानून को एक बार जरुर पढ़ ले तथा उसके बाद यह
निर्णय ले कि उसे किस पार्टी को वोट देना है I इस मुद्दे को लेकर मराठो ने
महाराष्ट्र में सरकार को हिला देने वाला आन्दोलन छेड़ रखा है तथा इसका व्यापक दुरूपयोग पूरे भारत को दहलाने
के लिए पर्याप्त है I मै तो यह निवेदन करता हूँ कि विवेकशील अनुसूचित जाति के लोग
भी इसे एक बार पढ़े तथा अपनी टिप्पड़ी दे कि क्या यह 21वीं शताब्दी के मानवीय
मूल्यों के अनुरूप है I मै विश्व के समस्त मानवाधिकार संगठनों से अपील करता हूँ कि
वे इस अधिनियम को पढ़े तथा अपने विचार दे कि इस से सवर्णों तथा पिछडो के
मानवाधिकारो का हनन होता है अथवा नहीं I जिसे मेरे लेखो में लिखी हुई बाते गलत लगे
वह उन्हें गलत कहने के पहले इस अधिनियम को पढ़ ले I इसे आपके फोन में अगर इंटरनेट
की सुविधा है तो उसे खोल कर तुरंत पढ़ सकते है I यदि आप इंटरनेट चलाना नहीं जानते
है तो परिवार या मोहल्ले के किसी नवयुवक को बुला कर उसके मोबाइल में इसे देख ले I
यदि आपको यह सुविधा कोई न उपलब्ध कराये तो मात्र 33 रुपये में कोई भी भी साइबर कैफे
आपको इसका प्रिंटआउट निकालकर आपके हाथ में दे देगा I जनहित में स्वयं भी पढ़े तथा
अपने शुभचिंतको को भी पढाये जिस से वे “हर-हर मोदी घर-घर मोदी” का नारा भूलकर
देशहित में, राष्ट्रहित में तथा समाज हित में “मोदी मुक्त उत्तरप्रदेश” तथा “भाजपा
मुक्त उत्तरप्रदेश” के अभियान में जुट जाए जिसकी अंतिम परिणति 2019 में भारत से
उनके समापन में होगी I जिस प्रकार गाँधी
और नेहरु के अतितुष्टीकरण ने पाकिस्तान को जन्म दिया उसी प्रकार मोदी द्वारा किया
जा रहा अनुसूचित जातियों का अतितुष्टीकरण सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर
देगा I मै यह मानता हूँ कि अनुसूचित जातियों पर जातिगत अत्याचार करने वाले को कड़ी
से कड़ी सजा मिलनी चाहिए किन्तु क्या इस व्यवस्था को इस सीमा तक खीचा जाना चाहिए कि
सवर्ण और पिछड़ी जातियों की महिलाओं की इज्जत के प्रति संवेदनशीलता को नजरअंदाज कर
दिया जाए I आज कल्पना कीजिए कि किसी सवर्ण या पिछड़ी महिला से सामूहिक
बलात्कार हो जाए तो यदि उसकी FIR कोई दरोगा या दीवान न लिखे तो उसपर कोई भी आपराधिक मुकदमा
नहीं बनेगा I अधिक से अधिक वह महिला किसी वरिष्ठ अधिकारी से शिकायत कर सकती है
जहाँ से उस पर जाँच का आदेश होगा तथा व्यवहारिक धरातल पर काफी हद तक संभव है कि वह
घूम टहल कर उसी थाने पर पहुच जाए I यदि महिला प्रभावशाली हुई अथवा कोई अधिकारी
अतिसंवेदनशील हुआ तो वह अधिक से अधिक मुकदमा कायम करने का आदेश दे सकता है जिसमे प्रायः थाने में “मुकदमा
लिखाने में देरी के कारण” वाले स्तम्भ में यह लिख दिया जाएगा कि देरी का कारण वादिनी का
देरी से शिकायत करना है जिसका सहज लाभ न्यायालय में अभियुक्त को मिलेगा I प्रायः
यह देखा जाता है कि सवर्ण या पिछड़ी जाति की महिला इतनी भी भाग्याशालिनी नहीं होती
है तथा उसे न्यायालय में धारा 156(3) के अंर्तगत मुकदमा लिखाने के लिए अपने खर्चे
पर परिवाद दाखिल करना पड़ता है I मा. न्यायालय भी प्रायः सम्बंधित थाने से ही इस सम्बन्ध में
आख्या मांगता है तथा कोई थाना अपनी गलती
स्वीकार नहीं करना चाहेगा और यह आख्या अपनी बचत में देगा कि वादिनी दूषित चरित्र
की है तथा फर्जी आरोप लगा रही है I इस प्रक्रिया में कई महीने लग जायेंगे तथा
वादिनी और उसका परिवार थक चुका होगा तथा टूटने के कगार पर होगा तथा एक ओर उसे
अभियुक्तों की ओर से प्रलोभन तथा दूसरी ओर धमकिया मिल रही होंगी I इस के बाद यदि
मा. न्यायाधीश संवेदनशील हुए तो मुकदमा लिखने का निर्देश देंगे अन्यथा प्रकरण यही
समाप्त हो जायेगा I मानवाधिकार आयोग चाहे तो इस स्वत: संज्ञान पर एक आख्या मांग ले
कि विभिन्न जनपदों में न्यायालय का आदेश होने तथा मुकदमा कायम होने में कितने दिन
का अंतर है I मुकदमा कायम होने के बाद भी यदि किसी सवर्ण या पिछड़ी महिला से
सामूहिक बलात्कार (GANG RAPE) हुआ है तो विवेचना राजपत्रित अधिकारी न कर के एक
सामान्य उपनिरीक्षक करेगा जो कि सामान्यतया इस मामले को लम्बे समय तक लंबित रखेगा
क्योकि उसको यह साहस प्रायः नहीं हो पायेगा कि निरीक्षक या थानाध्यक्ष जो उसके बॉस
है तथा जिन्होंने मुकदमा नहीं लिखा है तथा उसके बाद पुन: वरिष्ठ अधिकारियो
तथा मा. न्यायालय को यह आख्या दे रखी है
कि सारे आरोप झूठे है I इसके आलावा कानून ने अथवा शासन ने अथवा विभाग ने कोई समय
सीमा निर्धारित नहीं कर रखी है कि सम्बंधित उपनिरीक्षक कितने दिन में यह निर्णय दे
कि वह महिला वास्तव में बलात्कार की शिकार है अथवा पुलिस की प्रचलित शब्दावली में “यह
आशनाई का मामला है तथा आरोप बढ़ा चड़ा कर लगाए गए है I” सामन्यतया कहीं कोर्ट यह न
पूछ बैठे कि यदि प्रकरण सही था तो प्रारंभ में मुकदमा क्यों नहीं लिखा गया तथा कोई
STRICTURE न पास कर के इसके डर से थानाध्यक्ष तथा क्षेत्राधिकारी यह सुनिश्चित करेंगे
कि पुरे प्रकरण को फर्जी घोषित करते हुए आरोप पत्र (CHARGE-SHEET) की जगह अंतिम
आख्या (FINAL REPORT) प्रेषित कर दी जाए I अंतिम आख्या (FINAL REPORT) की स्थिति में काफी समय तक रिपोर्ट मा. न्यायालय में लंबित
रहेगी क्योकि न्यायालय में कार्यभार बहुत है तथा मा.न्यायाधीशों की संख्या इतनी कम
है कि मा.C.J.I. तक संवेदनशीलता की पराकाष्ठा पर जाते हुए अपनी नम आँखों को रुमाल
से पोछ चुके है और वह भी सार्वजानिक समारोह में I यदि मा. न्यायालय ने
पुलिस की अंतिम आख्या से असहमति व्यक्त करते हुए अभियुक्तों को SUMMON भी कर लिया
तो मा. न्यायालय में कोई समय सीमा तय नहीं है तथा दुरूह न्यायिक प्रक्रिया तथा
न्यायधीशों की सीमित संख्या के चलते निर्णय आने में 10 -20 साल लग जायेंगे I इसे
आप अतिरंजित न समझे I दिल्ली का निर्भया केस राष्ट्रीय स्तर पर तथा लखनऊ का आशियाना केस प्रदेश स्तर पर एक चर्चित केस था तथा इसके बावजूद न्याय पाने में कितना लम्बा समय
लगा तथा पुलिस का व्यवहार कितना उपेक्षापूर्ण था इसे सारे जमाने ने देखा है I ऐसी
स्थिति में एक सामान्य स्तर की सामान्य वर्ग की अथवा पिछड़े वर्ग की महिला को न्याय
मिल पायेगा अथवा नहीं और यदि मिल भी पाया तो कितना लम्बा समय लगेगा – इसकी परिकल्पना
सहज की जा सकती है इसके विपरीत नए अधिनयम की धारा 4 (1) (L) के (W) (2) का संज्ञान
ले जिसमे न केवल WORDS और ACTS बल्कि GESTURES को भी अपराध की श्रेणी में समाहित
किया गया है I GESTURES में आँख मार देना, घूर कर देखना , मस्त होकर मुस्करा देना
या अंगड़ाई लेना या आह भरना भी शामिल है I इस में “चक्षुमैथुन” (VISUAL SEX) की
परिकल्पना की गयी है जिस के अंतर्गत यदि कोई अनुसूचित जाति की महिला यदि यह आरोप लगा
दे कि कोई चौथी मंजिल पर खड़ा हुआ व्यक्ति उसे घूर कर देख रहा था तो बिना किसी
साक्ष्य के, बिना किसी मेडिकल के, बिना किसी छेड़छाड़ या शरीर के स्पर्श के यह कृत्य
गंभीर अपराध मान लिया जायेगा तथा दो महीने में विवेचना पूरी कर ली जाएगी जिसमे PRESUMPTION CLAUSE के चलते आरोप
लगाने वाले का दायित्व साक्ष्य प्रस्तुत करने का नहीं है बल्कि आरोपित व्यक्ति का
दायित्व अपने को निर्दोष सिद्ध करने का है जब कि ऐसी स्थिति अपने देश में प्रचलित
ROMAN JURISPRUDENCE के मान्य सिद्धांतो
के सर्वथा प्रतिकूल है I इतना ही नहीं दो महीने में ही विवेचना पूर्ण कर ली
जाएगी तथा अगले दो महीने में विचारण
(TRIAL) को पूरा कर निर्णय सुना दिया जाएगा I मोदी जी का क्या गजब का न्याय है कि
यदि किसी सवर्ण या पिछड़ी महिला के साथ सामूहिक बलात्कार (GANG RAPE) हो जाए तो इसे
उतना संवेदनशील नहीं माना जायेगा जितना कि चौथी मंजिल पर खड़े होकर सड़क से गुजरती
हुई किसी अनुसूचित जाति की महिला को घूरकर देख लेने का , आँख मार देने का ,
मुस्करा देने का या आह भरने का I सामूहिक बलात्कार (GANG RAPE) यदि सवर्ण या पिछड़ी
महिला के साथ हुआ है पुलिस स्वतंत्र है कि
जितने दिन में चाहे चार्ज सीट लगावे अथवा फाइनल रिपोर्ट प्रेषित कर दे I इसके
आलावा कोर्ट में दस बीस साल तो आराम से लगेंगे I इस बीच लड़की तथा उसके परिवार के
लोगो और साक्षियों को डराने और धमकाने की प्रक्रिया भी चालू रहेगी जैसा कि आशाराम
बापू केश तथा अन्य मामलो में सुनने में
आता रहा है I मनुवादी पार्टी अनुसूचित
जाति के लोगो पर अत्याचार की कतई समर्थक नहीं है किन्तु इस स्थिति को भी स्वीकार
करने को तैयार नहीं है कि सवर्ण तथा पिछड़ी महिला से हुए सामूहिक बलात्कार को उतना
भी संवेदनशील न माना जाए जितना किसी अनुसूचित जाति की महिला को चौथी मंजिल से
घूरने के फलस्वरूप हुए चक्षु-मैथुन को I क्या यह बलात्कार में आरक्षण नहीं है ?
कोई विवेकशील अनुसूचित जाति का व्यक्ति भी इस बात से सहमत होगा कि सभी जाति की
महिलाओ के सम्मान को समान भाव से देखा जाए तथा जातिगत आधार पर महिलाओ के सम्मान का
आकलन न किया जाए –
“अत्याचार नहीं करते
अपनी ऐसी परिपाटी है I
पर अत्याचार नहीं सहते
कहती यह हल्दीघाटी है II”
जवाहरलाल नेहरु के जमाने से लेकर
इंदिरागांधी के जमाने तक जो CIVIL RIGHTS ACT था वह सम्पूर्ण देश की भावनाओं का
प्रतिनिधित्व करता था तथा अनुसूचित जातियों के उपर जातिगत कारणों से जो अत्याचार
होते थे उनपर कार्यवाही होती थी तथा जो अत्याचार बिना जातिगत दुर्भावना की होती है
उसमे यह अधिनियम लागू नहीं होता था I मान लीजिये यदि कोई अनुसूचित जाति का व्यक्ति
विभागाध्यक्ष हो तथा वह अपने किसी कर्मचारी को एक थप्पड़ मार देता है तथा वह चपरासी
या क्लर्क आवेश में जवाबी थप्पड़ मार देता है तो भले ही उसे जानकारी हो कि सम्बंधित
विभागाध्यक्ष अनुसूचित जाति का है किन्तु इसे जातिगत उत्पीडन का मामला कहना
न्यायोचित नहीं है I अपने से छोटे कद के व्यक्ति के संघर्ष में तो जातिगत उत्पीडन
की बू आ सकती है किन्तु यदि अपने से किसी बड़े कद के व्यक्तित्व से कोई संघर्ष होता
है तो इसे जातिगत अत्याचार का मामला बनाना अन्यायपूर्ण है I
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कांग्रेस
भी अब अतिवादी हो गयी है जो कि पहले एक संतुलित दृष्टीकोण अपनाती थी I आज मोदी जी
के हर अन्याय पूर्ण कानून में सोनिया जी की पूर्ण सहमति है तथा वे अपने पूर्वजो के
संतुलित दृष्टिकोण से हटकर सवर्णों और पिछडो पर अत्याचार पूर्ण कानून बनाने में
बराबर की अपराधिनी तथा सहभागिनी सिद्ध हो रही है I इस अधिनियम के धारा 4 (1 ) (2) को पढना
आवश्यक है जिसके अनुसार यदि कोई थानाध्यक्ष मुकदमा लिखने में विलम्ब करता है अथवा
धारा 4 (2 ) (E) के अनुसार 60 दिन में
आरोप पत्र नहीं प्रेषित करता है तो धारा 4 (8) के अनुसार वह थानाध्यक्ष या
पुलिसउपाधीक्षक स्वय अपराधी माना जायेगा तथा उसको दी जाने वाली सजा किसी हालत में
छह महीने से कम नही होगी तथा संभव है कि
एक साल की हो जाए I इसी तरह इस अधिनियम की
धारा 14 (1) के अनुसार राज्य सरकार ECLUSIVE SPECIAL COURT का गठन करेगी तथा यह
सुनिश्चित करेगी कि 2 महीने के अन्दर मुकदमे का निस्तारण हो जाए इसी प्रकार धारा 8
के अंतर्गत संसोधित धारा 3 के अनुसार दिन
प्रतिदिन सुनवाई करेगी I यह स्थिति ARTICLE 14 का उल्लंघन है क्रमशः
