परशुराम की प्रतीक्षा जमदग्नि का आह्वान
जगह जगह परशुराम जयंती मनाई गई कितने महापुरुष अध्यक्षता किए,कितनो नें अपने लंबे चौड़े भाषणों से खून को गर्म कर दिया तथा कितनों ने फरसे कोई हाथ से तो कोई जबान से घुमाकर चलाकर दिखाया किंतु ना जाने क्यों कई जगहों से निमंत्रित होने के बावजूद मन में यह आत्म बल नहीं आ पाया कि कहीं भी सम्मिलित हो लिया जाए। कई बार मन बड़ा मचला लेकिन जैसे कोई अचेतन शक्ति लगाम पीछे खींच रही हो और आत्म चिंतन में बैठा रह गया कि परशुराम की साधना कैसे हो?
रामप्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियां याद आई-
जगह जगह परशुराम जयंती मनाई गई कितने महापुरुष अध्यक्षता किए,कितनो नें अपने लंबे चौड़े भाषणों से खून को गर्म कर दिया तथा कितनों ने फरसे कोई हाथ से तो कोई जबान से घुमाकर चलाकर दिखाया किंतु ना जाने क्यों कई जगहों से निमंत्रित होने के बावजूद मन में यह आत्म बल नहीं आ पाया कि कहीं भी सम्मिलित हो लिया जाए। कई बार मन बड़ा मचला लेकिन जैसे कोई अचेतन शक्ति लगाम पीछे खींच रही हो और आत्म चिंतन में बैठा रह गया कि परशुराम की साधना कैसे हो?
रामप्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियां याद आई-
अब ना अगले बलबले हैं,
अब ना वो जोशे-जुनून।
एक मिट जाने की हसरत,
अब दिले बिस्मिल में है।
अब ना वो जोशे-जुनून।
एक मिट जाने की हसरत,
अब दिले बिस्मिल में है।
राम प्रसाद बिस्मिल कहते हैं कि- अब वह जोश और जुनून नहीं रहा लेकिन फिर भी मिट जाने की एक हसरत बिस्मिल के दिल में अब भी मौजूद है।
कई महत्वपूर्ण साथियों को Facebook पर दुख व्यक्त करते देखा जोकि उत्साह को क्षीण करने वाला था। यह साथी वे लोग थे जिनको मैंने सालों से अनवरत संघर्ष करते देखा है। यही स्थिति बिस्मिल की उस समय हुई थी जब उन्होंने कोर्ट से सजा सुनाए जाने के बाद उदास साथियों को ललकारा था तथा रोने से मना किया था और उनकी ललकार के बाद भारत माता के जयकारे के साथ सारे क्रांतिकारी फांसी के फंदे को यों चूम लिए थे जैसे कोई वरमाला पहन रहे हों-
कई महत्वपूर्ण साथियों को Facebook पर दुख व्यक्त करते देखा जोकि उत्साह को क्षीण करने वाला था। यह साथी वे लोग थे जिनको मैंने सालों से अनवरत संघर्ष करते देखा है। यही स्थिति बिस्मिल की उस समय हुई थी जब उन्होंने कोर्ट से सजा सुनाए जाने के बाद उदास साथियों को ललकारा था तथा रोने से मना किया था और उनकी ललकार के बाद भारत माता के जयकारे के साथ सारे क्रांतिकारी फांसी के फंदे को यों चूम लिए थे जैसे कोई वरमाला पहन रहे हों-
मुर्ग-दिल मत रो यहां,
आंसू बहाना है मना।
अंदलीबों को कफस में,
चहचहाना है मना।
आंसू बहाना है मना।
अंदलीबों को कफस में,
चहचहाना है मना।
और उन्होंने साथियों को ढांढस बंधाया-
शहीदों की चिताओं पर,
जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मिटने वालों का,
यही नामोनिशां होगा।
जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मिटने वालों का,
यही नामोनिशां होगा।
यही संदेश मैं हताश,निराश और उदास साथियों को देना चाहता हूं कि वह अपने समाज के भी किसी भी प्रकार के सहयोग की अपेक्षा न करें और कर्तव्य पथ पर चल पड़े-
जननी तू भी निज हाथ न दे,
कोई भी मेरा साथ न दे।
अरि को न कभी सोने दूंगा
जब तक कर है-है भाला।
अरि को विष बीज न बोने दूंगा
(हल्दी घाटी)
कोई भी मेरा साथ न दे।
अरि को न कभी सोने दूंगा
जब तक कर है-है भाला।
अरि को विष बीज न बोने दूंगा
(हल्दी घाटी)
मैं अपने साथियों से कहना चाहता हूं कि वह चाहे जिस किसी भी शैली से तथा जिस किसी भी नेतृत्व में संघर्ष कर रहे हों मन को मायूस न करें कि कोई उनका साथ नहीं दे रहा है। मेरा तो शरीर भी साथ नहीं दे रहा है- Walker लेकर चल रहा हूं। पैर तक नहीं साथ दे रहे हैं कि खड़ा होकर भाषण दिया जा सके- धरना प्रदर्शन किया जा सके अथवा सड़क पर संघर्ष किया जा सके। ऐसे अवसर पर महात्मा चाणक्य के उद्गार याद आते हैं कि
" हे प्रभु चाहे मेरे अंग-अंग को नष्ट कर देना किंतु मेरे मस्तिष्क को सुरक्षित रखना- उसके बूते मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लूंगा"
" हे प्रभु चाहे मेरे अंग-अंग को नष्ट कर देना किंतु मेरे मस्तिष्क को सुरक्षित रखना- उसके बूते मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लूंगा"
तानसेन का एक प्रेरक प्रसंग याद आया जिसके अनुसार तानसेन के हाथ इतने छोटे थे कि वे ढोलक या मृदंग के दोनों ओर फैलाने पर भी नहीं पहुंच सकते थे फिर भी तानसेन को संगीत की वादन कला की साधना करनी थी। लिहाजा तानसेन ने तबले का आविष्कार किया जिसमें दोनों हाथों को सामने रखकर वातावरण को संगीतमय बनाया जा सके तथा धीरे-धीरे तबला ही ऐसा फैशन में आ गया कि ढोल और मृदंग काफी पीछे छूट गए। आवश्यकता आविष्कार की जननी है अपनी जवानी के दिनों की एक फिल्म अभिनेत्री साधना की याद आई जिसके माथे पर कहा जाता है कि कुछ ऐसे दाग थे जोकि देखने में भद्दे लगते थे तथा उसके फिल्मी कैरियर में बाधक पड़ रहे थे। साधना ने अपने बालों को अपने माथे की ओर मोड़ दिया तथा सर के बालों को माथे की ओर मोड़ देना एक फैशन बन गया। मेरे दोस्तों अपनी कमजोरियों को, विवशताओं को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी रणनीति बनाओ जिसके तहत शर्तों को तुम Dictate कर रहे हों। ब्रह्मा के मुंह से निकले हो उस गरिमा को बरकरार रखो।
लिहाजा अपनी विवशताओं को ध्यान में रखकर मैंने एक ऐसी रणनीति का आविष्कार किया जिसके तहत जो लोग अपने को मेरी तरह से कमजोर और लड़ने में अक्षम समझ रहे हों वे तक बिना किसी संघर्ष के, बिना आर्थिक शक्ति के, बिना शारीरिक शक्ति के, बिना सड़क पर उतरे, बिना किसी के जिंदाबाद या मुर्दाबाद के नारे लगाए, बिना किसी को ज्ञापन सौंपे तथा बिना किसी याचना के मात्र 10 वर्षों में समाज में निर्णायक भूमिका अपनाने में सक्षम हो सकें। जिनके हाथ में फरसा चलाने की शक्ति हो, उन्हें मेरा सादर प्रणाम है- बिना दिग्भ्रमित हुए चिंतन कर के संघर्ष पथ पर वह कैसे कदम बढ़ाएं यह मैं उनके विवेक पर छोड़ रहा हूं तथा छोटों को आशीर्वाद एवं अपने से बड़ों को प्रणाम पूर्वक शुभकामना दे रहा हूं।
जो मेरे जैसे असहाय लोग हों तथा अपने को चुका हुआ एवं अप्रासंगिक समझ रहे हों, जो अपने को दगी हुई कारतूस और मरी हुई भेड़ समझ बैठे हों, जिन्हें समाज से सहयोग न मिल पाने का गम हो वह मेरे साथ परशुराम के आगमन की प्रतीक्षा करें। इसके लिए मैं उन्हें जमदग्नि बनने का आह्वान कर रहा हूं। जमदग्नि परशुराम के पिता हैं। लंबे लंबे भाषण देने से परशुराम नहीं आ जाएंगे। अजीत त्रिपाठी पंकज की एक पोस्ट को देखा जिसके बाद मन इतना विचलित हुआ कि कई बार घर से निकलने की कोशिश की किंतु किसी परशुराम जयंती के कार्यक्रम में शामिल होने को कदम आगे नहीं बढ़ पाए। बार-बार कदम बढ़ाया लेकिन कदम ठिठक गए। मन में कुछ प्रश्न उमड़ने घुमड़ने लगे-
लिहाजा अपनी विवशताओं को ध्यान में रखकर मैंने एक ऐसी रणनीति का आविष्कार किया जिसके तहत जो लोग अपने को मेरी तरह से कमजोर और लड़ने में अक्षम समझ रहे हों वे तक बिना किसी संघर्ष के, बिना आर्थिक शक्ति के, बिना शारीरिक शक्ति के, बिना सड़क पर उतरे, बिना किसी के जिंदाबाद या मुर्दाबाद के नारे लगाए, बिना किसी को ज्ञापन सौंपे तथा बिना किसी याचना के मात्र 10 वर्षों में समाज में निर्णायक भूमिका अपनाने में सक्षम हो सकें। जिनके हाथ में फरसा चलाने की शक्ति हो, उन्हें मेरा सादर प्रणाम है- बिना दिग्भ्रमित हुए चिंतन कर के संघर्ष पथ पर वह कैसे कदम बढ़ाएं यह मैं उनके विवेक पर छोड़ रहा हूं तथा छोटों को आशीर्वाद एवं अपने से बड़ों को प्रणाम पूर्वक शुभकामना दे रहा हूं।
जो मेरे जैसे असहाय लोग हों तथा अपने को चुका हुआ एवं अप्रासंगिक समझ रहे हों, जो अपने को दगी हुई कारतूस और मरी हुई भेड़ समझ बैठे हों, जिन्हें समाज से सहयोग न मिल पाने का गम हो वह मेरे साथ परशुराम के आगमन की प्रतीक्षा करें। इसके लिए मैं उन्हें जमदग्नि बनने का आह्वान कर रहा हूं। जमदग्नि परशुराम के पिता हैं। लंबे लंबे भाषण देने से परशुराम नहीं आ जाएंगे। अजीत त्रिपाठी पंकज की एक पोस्ट को देखा जिसके बाद मन इतना विचलित हुआ कि कई बार घर से निकलने की कोशिश की किंतु किसी परशुराम जयंती के कार्यक्रम में शामिल होने को कदम आगे नहीं बढ़ पाए। बार-बार कदम बढ़ाया लेकिन कदम ठिठक गए। मन में कुछ प्रश्न उमड़ने घुमड़ने लगे-
1 क्या भारतीय संविधान का हनन करते हुए असीमित आरक्षण तथा प्रमोशन में बैकलॉग का समर्थन करने वाले ब्राह्मण जिस सभा में फरसा लहरा रहे हों तथा बड़बोले भाषण देकर ब्राह्मणों में जोश भर रहे हो- क्या वह परशुराम का मंच है अथवा सहस्त्रबाहु का?
2 डॉ अंबेडकर तक ने संविधान में स्पष्ट रूप से लिखा था कि 1950+10=1960 में आरक्षण जीरो परसेंट(0%) हो जाना चाहिए। किंतु जवाहरलाल नेहरु से लेकर आज तक कोई ऐसा प्रधानमंत्री नहीं मिला जिसने हर 10 साल बाद संविधान में संशोधन कर के आरक्षण को अगले 10 वर्षों के लिए न बढ़ाया हो। उल्लेखनीय है कि यह सारी सरकारें उन लोगों के वोट के बूते बनी थी जो परशुराम का जयकारा बोलते हैं। वर्तमान सरकार के मुखिया मोदीजी की घोषणा है कि यदि पुनः डॉ अंबेडकर धरती पर पैदा हो जाएं तथा आरक्षण को समाप्त करने की मांग उठाएं, तो भी उनके(मोदीजी के) जीतेजी आरक्षण समाप्त नहीं होगा।
"हमारी ही जूती हमारा ही सिर " वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। क्या स्वतः अपने हाथों से दरवाजे पर बंधी गाय को खोलकर सहस्त्रबाहु के हवाले करने वाले लोग परशुराम का नाम लेने का अधिकार रखते हैं?
आरक्षण विरोध रूपी गाय को छीनकर कोई सहस्त्रबाहु किसी जमदग्नि का गला काटकर ले जाए- ये तो समझ मे आ सकता है किंतु जिस आरक्षण विरोध रूपी गाय की रक्षा के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकाल में हमारे तमाम भाइयों ने आत्मदाह किया-उस अधिकार को छीनने वाले लोग ललकार कर के हमारे अधिकारों को चुनौती दें- क्या यह उचित है तथा क्या ऐसे लोगों के साथ मंच को साझा करके परशुराम जयंती मनाई जा सकती है?
"हमारी ही जूती हमारा ही सिर " वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। क्या स्वतः अपने हाथों से दरवाजे पर बंधी गाय को खोलकर सहस्त्रबाहु के हवाले करने वाले लोग परशुराम का नाम लेने का अधिकार रखते हैं?
आरक्षण विरोध रूपी गाय को छीनकर कोई सहस्त्रबाहु किसी जमदग्नि का गला काटकर ले जाए- ये तो समझ मे आ सकता है किंतु जिस आरक्षण विरोध रूपी गाय की रक्षा के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकाल में हमारे तमाम भाइयों ने आत्मदाह किया-उस अधिकार को छीनने वाले लोग ललकार कर के हमारे अधिकारों को चुनौती दें- क्या यह उचित है तथा क्या ऐसे लोगों के साथ मंच को साझा करके परशुराम जयंती मनाई जा सकती है?
3 अटल बिहारी वाजपेयी जी ने प्रमोशन में रिज़र्वेशन तथा बैकलॉग के लिए संविधान को बदल दिया तथा माननीय उच्चतम न्यायालय ने इसे संविधान के विरुद्ध मानकर निरस्त कर दिया। पुनः इन कदमों को उठाने की तैयारी चल रही है। क्या संविधान के विपरीत जाकर भी हमारे बच्चों के हितों को क्षति पहुंचाने वाले लोगों के साथ मंच को साझा करके परशुराम जयंती मनाई जा सकती है?
4 अनुसूचित जातियों के ऊपर अत्याचार होने की दशा में कड़ी से कड़ी कार्यवाही का भी स्वागत किया जा सकता है किंतु अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण अधिनियम 2016 के पारित होने तथा राष्ट्रपति से स्वीकृति प्राप्त करके लागू हो जाने के बाद यदि कोई किसी अनुसूचित जाति की महिला के साथ Gestures भी प्रदर्शित करता है जैसे मुस्कुरा देना, आंख मारना, घूरकर अथवा टकटकी लगाकर देखना तो भी यह उस विशेष श्रेणी का अपराध माना गया है जिसमें 2 महीने में विवेचना का समाप्त होना अनिवार्य है तथा 2 महीने में ट्रायल समाप्त होकर दंड का निर्धारण हो जाना है तथा इसके लिए Special Court बनाई जा रही है। इसके विपरीत यदि परशुराम के वंश में उत्पन्न कन्या के साथ अथवा किसी विवाहिता बहू के साथ यदि सामूहिक बलात्कार भी हो जाए तो अनिश्चितकाल तक उसकी विवेचना होगी तथा कम से कम दस-बीस साल तक उसका मुकदमा भी चल सकता है तथा इस बीच गवाहों को तोड़ने, धमकाने या प्रलोभन देने जैसी घटनाएं हो सकती हैं। अनुसूचित जाति की महिला के साथ गलत काम होने पर किसी किस्म की नरमी नहीं होनी चाहिए किंतु क्या सवर्ण या पिछड़ी महिला के साथ सामूहिक बलात्कार के प्रति भी इतना असंवेदनशील होना चाहिए कि अनिश्चितकाल तक मुकदमा चलता रहे तथा Special Court का गठन ना हो?
इस तरह का विभेदकारी कानून सर्वसम्मति से बना तथा क्या इस तरह के विभेदकारी कानून के पारित होने के लिए हाथ उठाने वालों को तथा उनको मत देने वालों को जिस सभा में सम्मानित किया जा रहा हो तथा उनको मालाएं पहनाई जा रही हो, क्या उस सभा में ऐसे महापुरुषों के साथ मंच को साझा करके परशुराम जयंती मनाई जा सकती है?
मैं इन प्रश्नों का अपनी ओर से कोई उत्तर नहीं दे रहा हूं- इसका उत्तर परशुराम के वंशजों पर छोड़ रहा हूं। मैं इतना कह सकता हूं कि
इस तरह का विभेदकारी कानून सर्वसम्मति से बना तथा क्या इस तरह के विभेदकारी कानून के पारित होने के लिए हाथ उठाने वालों को तथा उनको मत देने वालों को जिस सभा में सम्मानित किया जा रहा हो तथा उनको मालाएं पहनाई जा रही हो, क्या उस सभा में ऐसे महापुरुषों के साथ मंच को साझा करके परशुराम जयंती मनाई जा सकती है?
मैं इन प्रश्नों का अपनी ओर से कोई उत्तर नहीं दे रहा हूं- इसका उत्तर परशुराम के वंशजों पर छोड़ रहा हूं। मैं इतना कह सकता हूं कि
"फिर दिशाएं मौन हैं उत्तर नहीं है"
चलते-चलते सर्वदलीय परशुराम जयंती के आयोजकों से एक विनम्र प्रार्थना जिससे वे मेरे शामिल न हो सकने के अपराध को क्षमा कर सकें-
अब ना आऊंगा तुम्हारे द्वार मैं,
फिर तिरस्कृत याचना का स्वर लिए।
फिर न पूजूँगा किसी विश्वास को, सांस जिसकी टूट जाए राह पर।
जाओ, उड़ जाओ, नहाओ गंध में,
रंग तुमने पंख में सब भर लिये।
क्या मिलेगा, तुम्ही बतलाओ मेरी,
उम्र भर की रिक्तता को थाहकर।
अब ना आऊंगा तुम्हारे द्वार मैं,
फिर तिरस्कृत याचना का स्वर लिए।
फिर न पूजूँगा किसी विश्वास को, सांस जिसकी टूट जाए राह पर।
जाओ, उड़ जाओ, नहाओ गंध में,
रंग तुमने पंख में सब भर लिये।
क्या मिलेगा, तुम्ही बतलाओ मेरी,
उम्र भर की रिक्तता को थाहकर।
लोहिया साहित्य में वशिष्ठ को दी गयी गालियों के बावजूद साईकल का टायर पोंछने वालों तथा हाथी की सेवा में रत ब्रह्मऋषियों तथा स्वयं डॉ अम्बेडकर के पुनर्जन्म लेकर आरक्षण समाप्ति की मांग की दशा में जीवित रहते हुए आरक्षण समाप्त न करने का संकल्प लेने वाले मनीषी के भक्तों को परशुराम जयंती उनकी अपनी-अपनी शैली में मुबारक हो।
स्वाभिमान की गाय की रक्षा में अपना गला कटाने को तैयार जमदग्नि के चरण चिन्हों पर हम चल सकें- प्रभु इतनी शक्ति दे।
मुझे लगता है अभी परशुराम की प्रतीक्षा करनी होगी।
स्वाभिमान की गाय की रक्षा में अपना गला कटाने को तैयार जमदग्नि के चरण चिन्हों पर हम चल सकें- प्रभु इतनी शक्ति दे।
मुझे लगता है अभी परशुराम की प्रतीक्षा करनी होगी।

