अमन मणि त्रिपाठी के योगी जी महाराज के साथ मंच साझा करने की समीक्षा
प्रचंड बहुमत के बावजूद अमन मणि को साथ लेने के पीछे क्या मजबूरी है? इस प्रश्न का समीक्षात्मक उत्तर।
अखिलेश यादव से खुला सवाल..
क्या गायत्री प्रजापति के क्षेत्र में चुनाव प्रचार करना और अमन मणि त्रिपाठी और विजय मिश्रा का टिकट काटना समाजवाद के लिए अनिवार्य शर्त है?
हाथी Brand ब्राह्मणों द्वारा Facebook और जनसमाज में योगीजी की ब्राह्मण विरोधी छवि की घोषणा करने वालों के मुँह पर ताला लग गया।
"हंगामा है क्यूं बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है।"
कौन सा तीर मार लिया अखिलेश ने टिकट काटकर?
मुलायम की सजी सजाई दुकान को वैसे ही तोड़ दिया जैसे Mr. Clean बनने के चक्कर मे राजीव गांधी ने इंदिरा जी की तीन-चौथाई बहुमत की दुकान को तोड़ डाला था तथा राहुल ने साफ-पाक दिखने के चक्कर में सोनिया की बची-खुची दुकान को खाक कर पप्पू बन गया।
#किस पार्टी ने मंच साझा नहीं किया अमन मणि के पिता से- क्या वे अपने बेटे से कमजोर थे?
#शंकर के गले मे पहुंच कर विषधर सांप भी पूजनीय हो जाते हैं।
यह लेख एक Social Media के एक पत्रकार का एक राजनैतिक विश्लेषण है।
#बुद्धिजीवी बताएं क्यों केशव मौर्य के साथ मंच साझा करने पर वे उंगली नही उठाते हैं तथा अमन मणि के मंच साझा करते ही बेहोशी छाने लगती है?
#क्या सभी जातियां प्रचंड रहें और ब्राह्मण दीन सुदामा का वंशज बनकर बाभन बछिया बना रहे?
#चाणक्य ने तो विष कन्याओं तक के साथ मंच साझा किया था।
अखिलेश यादव से खुला सवाल..
क्या गायत्री प्रजापति के क्षेत्र में चुनाव प्रचार करना और अमन मणि त्रिपाठी और विजय मिश्रा का टिकट काटना समाजवाद के लिए अनिवार्य शर्त है?
हाथी Brand ब्राह्मणों द्वारा Facebook और जनसमाज में योगीजी की ब्राह्मण विरोधी छवि की घोषणा करने वालों के मुँह पर ताला लग गया।
"हंगामा है क्यूं बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है।"
कौन सा तीर मार लिया अखिलेश ने टिकट काटकर?
मुलायम की सजी सजाई दुकान को वैसे ही तोड़ दिया जैसे Mr. Clean बनने के चक्कर मे राजीव गांधी ने इंदिरा जी की तीन-चौथाई बहुमत की दुकान को तोड़ डाला था तथा राहुल ने साफ-पाक दिखने के चक्कर में सोनिया की बची-खुची दुकान को खाक कर पप्पू बन गया।
#किस पार्टी ने मंच साझा नहीं किया अमन मणि के पिता से- क्या वे अपने बेटे से कमजोर थे?
#शंकर के गले मे पहुंच कर विषधर सांप भी पूजनीय हो जाते हैं।
यह लेख एक Social Media के एक पत्रकार का एक राजनैतिक विश्लेषण है।
#बुद्धिजीवी बताएं क्यों केशव मौर्य के साथ मंच साझा करने पर वे उंगली नही उठाते हैं तथा अमन मणि के मंच साझा करते ही बेहोशी छाने लगती है?
#क्या सभी जातियां प्रचंड रहें और ब्राह्मण दीन सुदामा का वंशज बनकर बाभन बछिया बना रहे?
#चाणक्य ने तो विष कन्याओं तक के साथ मंच साझा किया था।
#Politics is the last refuge of the scoundrel..
यह लेख मेरा अथवा मुझसे जुड़े लोगों का व्यक्तिगत विचार नहीं है। यह लेख बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी पूर्वाग्रह के पूर्ण निष्पक्ष भाव से किया हुआ तथ्यों पर आधारित एक विश्लेषण है तथा कोई इससे सहमत हो या असहमत हो- यह एक राजनीतिक हकीकत है।
अमन मणि त्रिपाठी के योगी जी के साथ मंच साझा करने को लेकर सोशल मीडिया में तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हंगामा मचा हुआ है। आलोचना करने वाले यह भूल जाते हैं कि उन्होंने खुद क्या किया। कौन सी पार्टी ऐसी है जिसने अमन मणि त्रिपाठी के पिता के साथ मंच साझा नहीं किया? किस के मुंह में दांत है कि वह इस बिंदु पर योगी जी से सवाल पूछ ले।
दो पंक्तियां पढ़ लें-
यह लेख मेरा अथवा मुझसे जुड़े लोगों का व्यक्तिगत विचार नहीं है। यह लेख बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी पूर्वाग्रह के पूर्ण निष्पक्ष भाव से किया हुआ तथ्यों पर आधारित एक विश्लेषण है तथा कोई इससे सहमत हो या असहमत हो- यह एक राजनीतिक हकीकत है।
अमन मणि त्रिपाठी के योगी जी के साथ मंच साझा करने को लेकर सोशल मीडिया में तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हंगामा मचा हुआ है। आलोचना करने वाले यह भूल जाते हैं कि उन्होंने खुद क्या किया। कौन सी पार्टी ऐसी है जिसने अमन मणि त्रिपाठी के पिता के साथ मंच साझा नहीं किया? किस के मुंह में दांत है कि वह इस बिंदु पर योगी जी से सवाल पूछ ले।
दो पंक्तियां पढ़ लें-
कौन यहां जो फंसा नहीं है,
कभी पाप-कारा में?
किसके वसन नहीं भीगे हैं,
वैतरणी धारा में?
कभी पाप-कारा में?
किसके वसन नहीं भीगे हैं,
वैतरणी धारा में?
अपने कार्य क्षेत्र में अमन मणि त्रिपाठी के पिता ने जिन बुलंदियों को छुआ, अभी तक अमन मणि उसके दूर-दूर तक पास नहीं है।
कहां से यात्रा चालू किया अमर मणि त्रिपाठी ने?
कमुनिस्ट रहे, निर्दल रहे, कांग्रेस की शोभा बढ़ाए, कांग्रेस की टिकट पर भी माननीय रहे तथा कांग्रेस को छोड़कर बसपा तथा भाजपा की सरकारों में लालबत्ती लेकर माननीय रहे। कल्याण सिंह जैसे संत-पुरुष ने उन्हें मंत्री बनाया। रामप्रकाश गुप्ता तथा राजनाथ सिंह के सरकारों में यह उज्जवल परंपरा बरकरार रखी गई। जो बहन मायावती एलान करती थी कि-
'चढ़ गुंडों की छाती पर बटन दबाओ हाथी पर।'
उन मायावती ने अमर मणि त्रिपाठी को पूर्ण आशीर्वाद दिया तथा जहां तक मुझे याद है आज तक पुलिस के इतिहास में केवल एक DG रैंक के अधिकारी सस्पेंड हुए हैं-महेंद्र लालका तथा कागज में उन पर आरोप जो भी लगा हो- मैंने चार्ज शीट नहीं पढ़ी है लेकिन महेंद्र लालका IPS का नाम चर्चा में उस समय आया जब उनके हस्ताक्षर से अमर मणि त्रिपाठी के विरुद्ध CBCID की प्रारंभिक जांच आख्या का जाना अखबारों की सुर्खियों में आया तथा उसके बाद वह शासन के कोपभाजन बन गए थे। उस समय बड़ी मजबूरी में अमर मणि त्रिपाठी के मामले की जांच को CBI को सौंपना पड़ा था। कल्याण सिंह से अमर मणि त्रिपाठी का तालमेल इतना अच्छा था कि जब जगदंबिका पाल के नेतृत्व में अधिकांश मंत्रियों ने क्षणिक बगावत कल्याण सिंह के साथ कर दी थी तथा जगदंबिका पाल के मंत्रिमंडल में नरेश अग्रवाल और हरिशंकर तिवारी तक मंत्री बन गए थे उस समय भी अपनी लाल बत्ती को दावँ पर लगा कर अमर मणि त्रिपाठी कल्याण सिंह के साथ चट्टान की तरह खड़े थे। यह दर्शाता है कि कल्याण सिंह और अमर मणि में कितना गहरा तालमेल रहा होगा। जहां तक मुलायम सिंह यादव का प्रश्न है- मायावती की गोद से छूट कर जैसे ही अमर मणि गिरे, वैसे ही मुलायम सिंह ने अमर मणि को अपनी बाहों में थाम लिया। शिवपाल जी ने उनको कितना सम्मान दिया- यह सब को पता है। इस बार भी मुलायम सिंह ने तथा शिवपाल ने उन्हें टिकट दे रखा था।
अमन मणि प्रकरण में सबसे गंभीर आलोचना सपा तथा कांग्रेस की ओर से आई है। सपा का कहना है कि उसने अमर मणि के परिवार का टिकट काट दिया था तथा अपनी सीटों के कम होने की चिंता नहीं की थी। शुद्ध दार्शनिक अंदाज में रामगोपाल यादव तथा अखिलेश यादव कहते हैं कि उन्होंने विजय मिश्रा तथा अमन मणि के टिकट काट दिए तथा अपने भविष्य की चिंता नहीं की। मैं अखिलेश यादव से पूछना चाहूंगा कि गायत्री प्रजापति के क्षेत्र में जाकर प्रचार करना तथा अमन मणि तथा विजय मिश्रा का टिकट काटना किस उच्च कोटि की नैतिकता का द्योतक है? क्या बछिया ब्राहमण ही सपा में रहने के अधिकारी हैं?
जिसमें थोड़ा सा भी तेज दिखाई दिया है उस मनोज पाण्डेय तक को कभी मंत्रिमंडल से बाहर निकलने का रास्ता दिखाया गया तो कभी दया करके भिक्षा पात्र में एक टिकट डाल दिया गया। क्या समाजवादी पार्टी में केवल ऐसे ही ब्राह्मण रहने के हकदार हैं जिनके पास सींग तक ना हो? अगर सभी जातियों के लिए एक जैसा मानक बनाया जाता तो कोई बात नहीं थी। किंतु अपराधियों से अखिलेश को कितनी एलर्जी है- इस जमाने ने तब देखा जब गायत्री प्रजापति के खिलाफ मुकदमा तब कायम हो पाया जब सुप्रीम कोर्ट ने सबको अपनी औकात बता दी। गायत्री प्रजापति को दुलारना तथा अमन मणि और विजय मिश्र को दुत्कारना- यह किसी राजनैतिक सुचिता का द्योतक नहीं है बल्कि एक जातिगत पूर्वाग्रह है। इसी जातिगत पूर्वाग्रह के चलते कभी राजा भैया का मंत्रीमंडल बदलकर उनका कद छोटा करने की कोशिश की गई तो कभी बिना आरोपों के प्रमाणित हुए ही राजा भैया को मंत्रिमंडल से बाहर करके उनके खिलाफ CBIजांच चालू कर दी गई जिसमे वे सर्वथा निर्दोष पाए गए। इन्हीं कर्मों से अखिलेश ने अपने बाप और चाचा की मेहनत से सजाई गई दुकान को उसी तरह उजाड़ डाला जिस तरह राजीव गांधी ने इंदिरा गांधी की तैयार की गई तीन-चौथाई बहुमत की सरकार को Mr. Clean बनने के चक्कर में बर्बाद कर दिया था।
कांग्रेस की जो बची-खुची रियासत थी उसको किसी तरह से सोनिया गांधी ने सहेजा तथा बैसाखी के बल पर ही सही अपने द्वारा नामित किसी व्यक्ति को 10 साल तक प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रखा। किस प्रकार से शरद पवार,संगमा, जितिन प्रसाद के पंजों को उन्होंने सफलता पूर्वक मरोड़ा तथा किस प्रकार सीताराम केसरी तथा नरसिंहा राव जैसे लोगों के जबड़े में लगाम लगाई- इसको जमाने ने देखा तथा अटल बिहारी वाजपेई जैसे प्रतिभाशाली प्रधानमंत्री को अपदस्थ करके पुनः सत्ता को कब्जा करना मामूली बात नहीं थी। किंतु साफ-सुथरा दिखने के चक्कर में किस प्रकार राहुल ने लालू की मदद के लिए बनाए जा रहे अध्यादेश की प्रति को सार्वजनिक रूप से फाड़ दिया तथा ऐसी ही तमाम हरकतों से कांग्रेस को मित्रविहीन कर दिया तथा राहुल गांधी के कर्मों से कांग्रेस की स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि लोग उन्हें पप्पू कहने लगे। राहुल गांधी भूल गए कि राजनीति में एहसान किए जाते हैं और एहसान चुकाए जाते हैं ना की सत्याग्रह किया जाता है। लालू वह महापुरुष थे जिन्होंने ललकार कर कहा था कि सोनिया गांधी इस भारत माता की बहू है तथा उन्हें विदेशी कहना भारत माता का अपमान होगा। अगर राहुल ने सुशासन बाबू नीतीश कुमार को नेता ना घोषित कर के लालू को बिहार का भावी मुख्यमंत्री घोषित कर दिया होता तो जितनी सीटें कांग्रेस को साझा मोर्चा में लड़ने को मिली उस से कम से कम दो ढाई गुणा सीटें मिलती क्योंकि नितीश कुमार उस हालत में मोर्चे में न शामिल होते और या तो रामविलास पासवान की तरह पूर्णतया भाजपा के सामंत हो गए होते अथवा स्वतंत्र रुप से लड़ कर अपना अस्तित्व समाप्त कर लिए होते। किंतु Real Politik को भूलकर राहुल सिद्धांतों की राजनीति करने लगे और परिणाम सब के सामने है।
यही दशा अखिलेश यादव की हुई। अटल जी Feel Good और India Shining का नारा देते देते साफ हो गए तथा इसी ढर्रे पर अखिलेश भी विकास की गंगा में डूब गए। अखिलेश ने सोचा था कि "काम बोलता है" तथा" जो दिखता है वह बिकता है।" अखिलेश भूल गए कि उत्तर प्रदेश में एक बहुत बड़ी आबादी ब्राह्मणों की है जो जनता में वह सामग्री बेचती आई है जिसे किसी ने देखा ही नहीं। जनता का मनोविज्ञान ऐसा बना दिया गया है कि वह भगवान की प्राप्ति के मार्ग पर चल पड़ता है तथा गंगा और जमुना को पार करने के लिए जितना किराया देता है उससे अधिक उतआई वह वैतरणी पार करने के लिए देता है। इस सच्चाई को मोदी ने समझा तथा वे जुमलेबाजी करते-करते महान हो गए।
भारत में सपने बिकते हैं तथा जो बढ़िया सपना दिखा लेता है, वही राज करता है।
इंदिरा जी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया तथा 15 लाख तो दूर रहा 15 पैसे का भी आश्वासन नहीं दिया- यहां तक कि भर पेट भोजन तक का भरोसा नहीं दिया और उन्हें मोदीजी से भी ज्यादा दो-तिहाई बहुमत मिला तथा लोग चिल्लाने लगे-
"आधी रोटी खाएंगे इंदिरा गांधी लाएंगे"
आज आलोचना करने वाले आगा-पीछा नहीं सोचते हैं। हर पार्टी में बाहुबलीयों की एक अच्छी खासी तादाद है। जो लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि योगी जी ने अमन मणि के साथ मंच साझा किया, वह आज तक नहीं पूछे कि योगी जी केशव मौर्या के साथ मंच कैसे साझा कर रहे हैं। नैतिकता का मानक एकतरफा नहीं हो सकता और वह जाति,धर्म तथा क्षेत्र के आधार पर विभेदकारी नहीं होना चाहिए। इसी का रोना एक बार विनय कटियार भी रोए थे जब वे पार्टी में बाबू सिंह कुशवाहा को शामिल किए थे। बाद में पार्टी हाईकमान के आग्रह पर बाबू सिंह कुशवाहा की सदस्यता निरस्त कर दी गई थी तथा विनय कटियार को यह एहसास हुआ था कि उनकी बात को महत्व इसलिए नहीं दिया गया क्योंकि उनकी चमड़ी काली थी तथा पिछड़े वर्ग का होने के नाते उनको यह अपमान झेलना पड़ा। केशव मौर्य के संरक्षक अशोक सिंघल थे तथा उनकी सेवा करने के कारण उनके समस्त पाप धुल गए तथा वे तपे-तपाये सोने के समान पवित्र हो गए। भगवान शंकर के गले में तमाम सांप लिपटे रहते हैं तथा विषधर होने के बावजूद पूजनीय होते हैं। मैं केशव मौर्या के खिलाफ कोई व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं कर रहा तथा मेरे कहने का आशय मात्र इतना है कि अशोक सिंघल जी की चरण सेवा से केशव मौर्या न केवल पूजनीय हो गए बल्कि उनके आपराधिक इतिहास की कहीं चर्चा नहीं होती है। गोरखनाथ मंदिर का भी अपना एक दिव्य इतिहास रहा है। महंत जी के शरणागत होते-होते ओम प्रकाश पासवान के सारे पाप धुल गए तथा वे रत्नाकर ना रहकर वाल्मीकि बन बैठे। पुनः जैसे कोई सामान फ्रिज से निकाला जाए तो बाहर सड़ने लगता है, उसी प्रकार गोरखनाथ Temple के बाहर जाते-जाते भाजपा की निगाह में ओमप्रकाश पासवान का आपराधिक स्वरुप सामने आने लगा। हर पार्टी को अपना अपराधी अपराधी नहीं लगता है तथा वह अंगुलीमाल नजर आता है। यही हर पार्टी की लीला है।
TV चैनलों पर बार-बार यह सवाल पूछा जा रहा है कि तीन-चौथाई बहुमत के होने के बावजूद अमन मणि त्रिपाठी को क्यों साथ लिया जा रहा है?
उत्तर है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में तथा विशेष रुप से पूर्वांचल में अन्य दलों के मुकाबले भाजपा में ब्राह्मण समाज के बाहुबलियों की एक Crisis आ गई है। लिहाजा जब किसी पंडित जी पर एक मामूली झटका भी लगा तो अच्छी खासी आलोचना Facebook पर होने लगी कि योगी जी जातिवाद कर रहे हैं। स्थानीय जनता में भी दबी जवान से इन चर्चाओं को हवा दी गई। अन्य समाज के बाहुबली अन्य दलों की भांति भाजपा में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं लेकिन केशव मौर्या के मुकाबले किसी दिनेश शर्मा को खड़ा करना पड़ता है। हरिशंकर तिवारी जी के बच्चों के बसपा में चले जाने के बाद विशेष रुप से गोरखपुर मंडल में एक ऐसा Vacuum पैदा हो गया है जिसका एहसास भाजपाइयों को तब हुआ जब हाते को छूते ही योगी जी पर आरोपों की बौछार हो गई। ब्राह्मणद्रोही के रूप में उनके खिलाफ हवा फैलाने की कोशिश की गई। बृज भूषण सिंह तथा रमाकांत यादव जैसे बलवान लोग भाजपा को सुशोभित कर रहे हैं तथा केशव मौर्या जैसे लोग भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं तो ऐसी स्थिति में करवरिया परिवार के जेल में रहने के कारण किसी भी ब्राह्मण पर कार्रवाई करने पर एक गलत संदेश जाता तथा इस कमी को पूरा करने के लिए अमन मणि त्रिपाठी एक उपयुक्त पात्र के रूप में दिखाई दिए। अगर वह भाजपा में रहे होते तो हाते वाले कांड के बाद सोशल मीडिया तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जितनी हलचल हुई, उतनी नहीं होती। जनता को यह एहसास होता कि योगी जी किसी जाति के खिलाफ नहीं है बल्कि किसी व्यक्ति के खिलाफ हैं और अमन मणि भी सत्संग पाकर ओम प्रकाश पासवान, रमाकांत यादव, बृजभूषण सिंह तथा केशव मौर्या की भांति सत्प्रकृति के बनने लगते। सत्संगति की महिमा शास्त्रों में जगह-जगह पर गाई गयी है।
कौन कितना बड़ा अपराधी है तथा कौन नहीं है इसके बारे में उसके आपराधिक इतिहास के आधार पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। कई ऐसे मामले देखे गए हैं जिसमें हत्या के आरोप में मुकदमा झेल रहे लोगों को जेल से इसलिए छूटना पड़ा है कि जिस आदमी के मारे जाने का आरोप था वही आदमी कचहरी में फिर खड़ा दिखाई देता है। न्यायालय में लंबित मामले तथा न्यायालय से निर्णीत मामले के बारे में मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता लेकिन ऐसे सैकड़ों मुकदमे हैं जिनमें उच्च न्यायालय के निर्णयों को उच्चतम न्यायालय के द्वारा पलट दिया गया है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय में भी कई ऐसे मामले हैं जिनमें उसी साक्ष्य के आधार पर बेंच के एक माननीय न्यायमूर्ति ने किसी को दोषी माना है तो दूसरे लोगों ने कभी सहमति व्यक्त की है तो कभी उसी साक्ष्य के आधार पर निर्दोष माना है। अपने कलेजे पर हाथ रखकर पूछे तो कोई जनप्रतिनिधि बता दे कि उनके इलाके में जो हत्याएं हुई है उनमें अधिकांश में जो लोग जेल गए हैं उनके बारे में उनकी Impresssion क्या है। अनौपचारिक रूप से पता कर लें कि क्या वे वास्तव में मौजूद थे? कोई TV CHANNEL या खोजी पत्रकार जन साधारण में यह Survey कर ले कि क्या मुल्जिम सही फंसे हैं?
मैंने अपने पूरे सेवाकाल में श्री महेश चंद्र द्विवेदी को छोड़कर किसी को प्रतिष्ठा का सवाल बनाकर Pursue करते नहीं देखा कि कोई भी नामजद अथवा प्रकाश में आया अभियुक्त हो तो उसके बचाव के विस्तृत बयान को Case Diary में दर्ज किया जाए तथा बचाव पक्ष के समस्त साक्ष्यों का संकलन करके एक सुविचारित तथा समन्वित निष्कर्ष निकाला जाए कि कौन दोषी है तथा कौन निर्दोष। 90% IPS अफसर इस सिद्धान्त के पोषक पाए गए हैं कि किसी एक आदमी का नाम निकालने से पूरे मुकदमे पर बुरा असर पड़ेगा, केस कमजोर होगा और फलस्वरूप बाकी मुल्जिम भी रिहा हो जाएंगे। अधिकांश मामलों में हत्याऐं सुपारी देकर पेशेवर हत्यारों द्वारा कराई जाती हैं किंतु सारे अभियुक्तों के नामजद होने के कारण यह Scope ही नहीं बचता कि कोई पेशेवर हत्यारा Workout किया जा सके। कोई भी खोजी पत्रकार निर्णीत मामलों में अनौपचारिक जांच करके देखे तो पाएगा कि 90% मामलों में मुल्जिम गलत फंसाये गए है।इसके अलावा इससे भी बड़ा Scandal है फर्जी गवाहों का। जो लोग वास्तव में हत्या होते देखते हैं उसमें से 95% इतनी दहशत में आ जाते हैं कि वे किसी भी क़ीमत पर चाहे कोई उनकी जान ही ले ले लेकिन वे यह स्वीकार नहीं कर सकते कि उन्होंने हत्या को घटित होते देखा है। गवाही में वादी द्वारा थानाध्यक्ष से वार्ता करके ऐसे मजबूत कलेजे के पारिवारिक साथियों के नाम FIR में लिखाये जाते हैं जोकि मौका तो छोड़िए दूर-दूर तक भी मृतक के पास नहीं होते। गौर से देखें तो प्रायः यह मिलेगा कि Victim को अस्पताल पहुंचाने में या थाने पहुंचाने में अथवा तत्काल 100 नंबर पर या थाने पर फोन करने में देर क्यों होती है?
यदि कोई पारिवारिक सदस्य या मित्र वास्तव में साथ होता तो अगर वह मृतक की रक्षा के लिए संघर्ष न भी कर पाता तो कम से कम 100 नंबर अथवा थाने पर तत्काल फोन तो कर ही देता। कोई भी खोजी पत्रकार यदि 100 हत्याओं में इस बिंदु की जांच करे कि घटना के कितने देर बाद पुलिस को सूचना दी गयी है तो आंखे खुली की खुली रह जाएंगी तथा यह पाया जाएगा कि अज्ञात राहगीरों द्वारा सूचना दी गयी है और काफी देर बाद घरवाले पहुंचे हैं तथा जब पूरा परिवार बुला लिया जाता है तो पूर्ण विचार विमर्श करके यह निर्णय लिया जाता है कि किस-किस का नाम अभियुक्तों की सूची में डाला जाए तथा किन लोगों का नाम साक्षियों(गवाह) की सूची में डाला जाए। अभियुक्तों में ऐसे लोगो का नाम लिखा जाता है जिनसे शत्रुता होती है तथा गवाहों में उन लोगों का नाम लिखा जाता है जो परिवार के होते हैं अथवा पारिवारिक मित्र होते हैं और भरसक इतने होशियार होते हैं कि जिरह के दौरान उन्हें अभियुक्तों के वकील उखाड़ न सकें तथा वे कलेजे के इतने मजबूत हों तथा दिमाग के इतने तेज हों कि वे आखिर तक डटे रह सकें। ऐसी स्थिति में किसी भी आपराधिक इतिहास वाले आदमी को अथवा Under Trial को अथवा Convict तक को कोई यह दावे के साथ नहीं कह सकता कि यह तो अभियुक्त होगा ही होगा। माननीय न्यायालय तो अपने सामने उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर Examination-In-Chief , Cross Examination तथा बहस के आधार पर साक्ष्य का समग्र मूल्यांकन कर के निर्णय सुनाता है किंतु सम्पूर्ण सत्य तो कुछ और ही होता है जो कभी न्यायालय के सामने कभी पेश ही नही किया जाता। यह मैं कोई Fiction के रूप में अनर्गल प्रलाप नहीं कर रहा हूं बल्कि 40 वर्ष की सेवा में जो अपनी आँखों से देखा और सुना है, जो गपशप में मित्रों से सुना तथा विभिन्न प्रदेश स्तरीय तथा राष्ट्रीय बैठकों में विचार-विमर्श के दौरान सुना है उसका यथार्थ चित्रण दे रहा हूं। जिसे विश्वास ना हो वह इन बिंदुओं पर स्वयं Survey कर अपने निष्कर्ष निकाल ले।
सत्य वही नहीं है जो आंखों से दिखाई दे रहा है तथा कानों से सुनाई दे रहा है। इनसे भी हटकर तमाम परिस्थितियां ऐसी होती हैं जिनकी यथार्थ के निर्धारण में अपनी उपयोगिता होती है।
अमर मणि त्रिपाठी के मामले में समाचार पत्रों में यह खबर प्रकाशित हुई थी कि संबंधित थाने में एक दरोगा ने थाने की GD में यह Entry की थी कि कवियत्री जी के निवास स्थल पर संदिग्ध परिस्थितियों में मंत्री जी का आना-जाना है तथा किसी दुर्घटना की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। समाचार पत्र में यह भी था कि मंत्री जी ने अपने रसुख से उस दरोगा का गैर-जनपद स्थानांतरण करवा दिया था तथा उस दरोगा ने पुनः अपना स्थानांतरण रुकवा कर अपनी नियुक्ति उसी थाने में करवा ली थी।यह खबर सत्य है या असत्य- में कुछ नही कह सकता लेकिन यदि सत्य हो तो यह जांच का विषय होना चाहिये था कि क्या बिना अमर मणि के किसी बराबरी के अथवा उनसे बड़े कद के नेता अथवा अधिकारी के निर्देश अथवा संरक्षण के क्या कोई दरोगा कोई प्रतिकूल तथ्य थाने की GD में लिखने की हिम्मत कर सकता है?
यद्यपि इसकी संभावना कम है लेकिन तर्क के लिए 1% मान भी लिया जाए कि कोई मनबढ़ दरोगा रंगबाजी में अपने पर आकर ऐसा कर भी डाले तो बिना किसी राजनैतिक अथवा प्रशासनिक संरक्षण के क्या वह अपना स्थानांतरण निरस्त करवा कर उसी थाने पर फिर वापस आ पाता?
इस रसूख का व्यक्तित्व कौन था तथा इसके पीछे उसका क्या निहित उद्देश्य था?
इसको उद्द्घाटित करने के लिये न्यायपालिका के माध्यम से दबाव बनाने का कोई प्रयास अमर मणि द्वारा संभवतः नही किया गया क्योंकि इसके अलावा यह चिंता उनके मन में थी कि प्याज की परतों की तरह मुकदमे की अधिक परतें उधेड़े जाने पर कहीं वह फस न जाएं। इसके अलावा समाचार पत्रों के अनुसार एक SIM भी अभियुक्तों के पास से मिला था जिसकी गहराई से जांच नहीं हुई कि यह सिम किसका था और वह अभियुक्तों के पास कैसे आया? इसके अलावा अभियुक्तों के Call Detail के आधार पर यह पता करने की कोशिश नहीं हुई कि उनके किस-किस से संबंध थे ? जितना समय अमर मणि त्रिपाठी ने अपने बचाव में साक्ष्य बनाने में लगाया उतना समय यदि साक्ष्यों के विश्लेषण में लगाया होता तो स्थिति कुछ और हो सकती थी। सामान्यतया यदि किसी की जानकारी में कोई हत्या हो रही हो तो मनोविज्ञान यह कहता है कि कहीं ना कहीं का दौरा दिखा कर वह व्यक्ति उस दिन उस शहर में नहीं रह पाएगा जिस शहर में वह हत्याकांड हो रहा है। अमरमणि त्रिपाठी कहीं का भ्रमण दिखाकर लखनऊ से हट सकते थे किंतु जब कवियित्री जी की हत्या की खबर फैली तो उस समय वह अपने निवास में विराजमान थे। राष्ट्रपति का क्षमादान तक अस्वीकृत हो जाने के बावजूद और न्यायालय में समस्त उपचार खत्म होने के बावजूद एक आतंकवाद के आरोपी के लिए अगर प्रशांत भूषण माननीय उच्चतम न्यायालय को रात में खुलवा सकते हैं तो जब तक जीवन है तब तक संपूर्ण न्याय के लिए किसी भी आरोपी के पास अतिरिक्त साक्ष्य के साथ माननीय उच्चतम न्यायालय में बारंबार जाने का अधिकार है किंतु अमरमणि त्रिपाठी इस अधिकार का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि मुझे लगता है कि वह निराश, हताश तथा उदास हो गए हैं और परिणाम स्वरूप अवसादग्रस्त।
अमनमणि त्रिपाठी पर जो आरोप लगे हैं उन पर मैं कोई टिप्पणी इसलिए नहीं कर रहा क्योंकि निर्णीत मामले पर टिप्पणी की जा सकती है किंतु जो मामला न्यायालय में लंबित है उस पर कोई टिप्पणी करना न्यायालय की अवमानना है तथा कोई भी टिप्पणी न्यायालय के सामने ही की जा सकती है। किंतु यह एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि जब तक कोई व्यक्ति दोष सिद्ध ना हो जाए तब तक वह मात्र न्यायालय में मुकदमा लंबित होने के कारण अपराधी नहीं कहा जा सकता है।
अटल विहारी वाजपेई जी दर्जनों बार जयललिता से शाल ग्रहण कर चुके हैं तथा कई बार मंच भी साझा कर चुके हैं जबकि जयललिता भ्रष्टाचार के आरोपों से युक्त थीं। जिन आरोपों में जिला जज ने जयललिता और उनके सहयोगियों को सजा दी उसी मुकदमे में उच्च न्यायालय ने उन्हें निर्दोष घोषित करते हुए निर्णय सुना दिया तथा पुनः उच्चतम न्यायालय ने हाईकोर्ट के निर्णय से असहमति व्यक्त करते हुए पुनर्विचार किया। लालू से भी अन्ना के नाम का जयकारा लगाने वाले केजरीवाल गले मिले तथा मंच साझा करना तो एक बहुत छोटी चीज थी।
राजनीति में कोई अछूत नहीं होता है आवश्यकता पर किसी भी चीज का सहारा लेना पड़ता है। चाणक्य ने नंद वंश के उन्मूलन के लिए न केवल चंद्रगुप्त का उपयोग किया बल्कि विषकन्याओं का भी उपयोग किया। Europe में माना जाता है कि "#Politics_is_the_last_refuge_of_the_scoundrel" तथा भारतीयों की मान्यता है कि
"#वेश्यांगनेव्_नृप_नीतिरनेकरूपा"
अर्थात राजा की नीति को किसी सिद्धांत से बंधा नहीं होना चाहिए बल्कि वेश्या की तरह समय-समय पर राजा की नीति भी आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित होनी चाहिए। राजनीति में केवल एक ही सिद्धांत चलता है कि हमारा कोई सिद्धांत नहीं।
योगी जी के मंच साझा करने से ब्राह्मणों को दिग्भ्रमित करने वाली तमाम अफवाहें एक साथ चर्चा के बाहर हो गईं तथा एक नई चर्चा प्रारंभ हो गई। इसMission की बिना कुछ कहे बिना किसी को शामिल किए यह स्वयं में यह एक उपलब्धि है तथा योगी जी के राजनैतिक कौशल का Master Stroke।
कहां से यात्रा चालू किया अमर मणि त्रिपाठी ने?
कमुनिस्ट रहे, निर्दल रहे, कांग्रेस की शोभा बढ़ाए, कांग्रेस की टिकट पर भी माननीय रहे तथा कांग्रेस को छोड़कर बसपा तथा भाजपा की सरकारों में लालबत्ती लेकर माननीय रहे। कल्याण सिंह जैसे संत-पुरुष ने उन्हें मंत्री बनाया। रामप्रकाश गुप्ता तथा राजनाथ सिंह के सरकारों में यह उज्जवल परंपरा बरकरार रखी गई। जो बहन मायावती एलान करती थी कि-
'चढ़ गुंडों की छाती पर बटन दबाओ हाथी पर।'
उन मायावती ने अमर मणि त्रिपाठी को पूर्ण आशीर्वाद दिया तथा जहां तक मुझे याद है आज तक पुलिस के इतिहास में केवल एक DG रैंक के अधिकारी सस्पेंड हुए हैं-महेंद्र लालका तथा कागज में उन पर आरोप जो भी लगा हो- मैंने चार्ज शीट नहीं पढ़ी है लेकिन महेंद्र लालका IPS का नाम चर्चा में उस समय आया जब उनके हस्ताक्षर से अमर मणि त्रिपाठी के विरुद्ध CBCID की प्रारंभिक जांच आख्या का जाना अखबारों की सुर्खियों में आया तथा उसके बाद वह शासन के कोपभाजन बन गए थे। उस समय बड़ी मजबूरी में अमर मणि त्रिपाठी के मामले की जांच को CBI को सौंपना पड़ा था। कल्याण सिंह से अमर मणि त्रिपाठी का तालमेल इतना अच्छा था कि जब जगदंबिका पाल के नेतृत्व में अधिकांश मंत्रियों ने क्षणिक बगावत कल्याण सिंह के साथ कर दी थी तथा जगदंबिका पाल के मंत्रिमंडल में नरेश अग्रवाल और हरिशंकर तिवारी तक मंत्री बन गए थे उस समय भी अपनी लाल बत्ती को दावँ पर लगा कर अमर मणि त्रिपाठी कल्याण सिंह के साथ चट्टान की तरह खड़े थे। यह दर्शाता है कि कल्याण सिंह और अमर मणि में कितना गहरा तालमेल रहा होगा। जहां तक मुलायम सिंह यादव का प्रश्न है- मायावती की गोद से छूट कर जैसे ही अमर मणि गिरे, वैसे ही मुलायम सिंह ने अमर मणि को अपनी बाहों में थाम लिया। शिवपाल जी ने उनको कितना सम्मान दिया- यह सब को पता है। इस बार भी मुलायम सिंह ने तथा शिवपाल ने उन्हें टिकट दे रखा था।
अमन मणि प्रकरण में सबसे गंभीर आलोचना सपा तथा कांग्रेस की ओर से आई है। सपा का कहना है कि उसने अमर मणि के परिवार का टिकट काट दिया था तथा अपनी सीटों के कम होने की चिंता नहीं की थी। शुद्ध दार्शनिक अंदाज में रामगोपाल यादव तथा अखिलेश यादव कहते हैं कि उन्होंने विजय मिश्रा तथा अमन मणि के टिकट काट दिए तथा अपने भविष्य की चिंता नहीं की। मैं अखिलेश यादव से पूछना चाहूंगा कि गायत्री प्रजापति के क्षेत्र में जाकर प्रचार करना तथा अमन मणि तथा विजय मिश्रा का टिकट काटना किस उच्च कोटि की नैतिकता का द्योतक है? क्या बछिया ब्राहमण ही सपा में रहने के अधिकारी हैं?
जिसमें थोड़ा सा भी तेज दिखाई दिया है उस मनोज पाण्डेय तक को कभी मंत्रिमंडल से बाहर निकलने का रास्ता दिखाया गया तो कभी दया करके भिक्षा पात्र में एक टिकट डाल दिया गया। क्या समाजवादी पार्टी में केवल ऐसे ही ब्राह्मण रहने के हकदार हैं जिनके पास सींग तक ना हो? अगर सभी जातियों के लिए एक जैसा मानक बनाया जाता तो कोई बात नहीं थी। किंतु अपराधियों से अखिलेश को कितनी एलर्जी है- इस जमाने ने तब देखा जब गायत्री प्रजापति के खिलाफ मुकदमा तब कायम हो पाया जब सुप्रीम कोर्ट ने सबको अपनी औकात बता दी। गायत्री प्रजापति को दुलारना तथा अमन मणि और विजय मिश्र को दुत्कारना- यह किसी राजनैतिक सुचिता का द्योतक नहीं है बल्कि एक जातिगत पूर्वाग्रह है। इसी जातिगत पूर्वाग्रह के चलते कभी राजा भैया का मंत्रीमंडल बदलकर उनका कद छोटा करने की कोशिश की गई तो कभी बिना आरोपों के प्रमाणित हुए ही राजा भैया को मंत्रिमंडल से बाहर करके उनके खिलाफ CBIजांच चालू कर दी गई जिसमे वे सर्वथा निर्दोष पाए गए। इन्हीं कर्मों से अखिलेश ने अपने बाप और चाचा की मेहनत से सजाई गई दुकान को उसी तरह उजाड़ डाला जिस तरह राजीव गांधी ने इंदिरा गांधी की तैयार की गई तीन-चौथाई बहुमत की सरकार को Mr. Clean बनने के चक्कर में बर्बाद कर दिया था।
कांग्रेस की जो बची-खुची रियासत थी उसको किसी तरह से सोनिया गांधी ने सहेजा तथा बैसाखी के बल पर ही सही अपने द्वारा नामित किसी व्यक्ति को 10 साल तक प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रखा। किस प्रकार से शरद पवार,संगमा, जितिन प्रसाद के पंजों को उन्होंने सफलता पूर्वक मरोड़ा तथा किस प्रकार सीताराम केसरी तथा नरसिंहा राव जैसे लोगों के जबड़े में लगाम लगाई- इसको जमाने ने देखा तथा अटल बिहारी वाजपेई जैसे प्रतिभाशाली प्रधानमंत्री को अपदस्थ करके पुनः सत्ता को कब्जा करना मामूली बात नहीं थी। किंतु साफ-सुथरा दिखने के चक्कर में किस प्रकार राहुल ने लालू की मदद के लिए बनाए जा रहे अध्यादेश की प्रति को सार्वजनिक रूप से फाड़ दिया तथा ऐसी ही तमाम हरकतों से कांग्रेस को मित्रविहीन कर दिया तथा राहुल गांधी के कर्मों से कांग्रेस की स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि लोग उन्हें पप्पू कहने लगे। राहुल गांधी भूल गए कि राजनीति में एहसान किए जाते हैं और एहसान चुकाए जाते हैं ना की सत्याग्रह किया जाता है। लालू वह महापुरुष थे जिन्होंने ललकार कर कहा था कि सोनिया गांधी इस भारत माता की बहू है तथा उन्हें विदेशी कहना भारत माता का अपमान होगा। अगर राहुल ने सुशासन बाबू नीतीश कुमार को नेता ना घोषित कर के लालू को बिहार का भावी मुख्यमंत्री घोषित कर दिया होता तो जितनी सीटें कांग्रेस को साझा मोर्चा में लड़ने को मिली उस से कम से कम दो ढाई गुणा सीटें मिलती क्योंकि नितीश कुमार उस हालत में मोर्चे में न शामिल होते और या तो रामविलास पासवान की तरह पूर्णतया भाजपा के सामंत हो गए होते अथवा स्वतंत्र रुप से लड़ कर अपना अस्तित्व समाप्त कर लिए होते। किंतु Real Politik को भूलकर राहुल सिद्धांतों की राजनीति करने लगे और परिणाम सब के सामने है।
यही दशा अखिलेश यादव की हुई। अटल जी Feel Good और India Shining का नारा देते देते साफ हो गए तथा इसी ढर्रे पर अखिलेश भी विकास की गंगा में डूब गए। अखिलेश ने सोचा था कि "काम बोलता है" तथा" जो दिखता है वह बिकता है।" अखिलेश भूल गए कि उत्तर प्रदेश में एक बहुत बड़ी आबादी ब्राह्मणों की है जो जनता में वह सामग्री बेचती आई है जिसे किसी ने देखा ही नहीं। जनता का मनोविज्ञान ऐसा बना दिया गया है कि वह भगवान की प्राप्ति के मार्ग पर चल पड़ता है तथा गंगा और जमुना को पार करने के लिए जितना किराया देता है उससे अधिक उतआई वह वैतरणी पार करने के लिए देता है। इस सच्चाई को मोदी ने समझा तथा वे जुमलेबाजी करते-करते महान हो गए।
भारत में सपने बिकते हैं तथा जो बढ़िया सपना दिखा लेता है, वही राज करता है।
इंदिरा जी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया तथा 15 लाख तो दूर रहा 15 पैसे का भी आश्वासन नहीं दिया- यहां तक कि भर पेट भोजन तक का भरोसा नहीं दिया और उन्हें मोदीजी से भी ज्यादा दो-तिहाई बहुमत मिला तथा लोग चिल्लाने लगे-
"आधी रोटी खाएंगे इंदिरा गांधी लाएंगे"
आज आलोचना करने वाले आगा-पीछा नहीं सोचते हैं। हर पार्टी में बाहुबलीयों की एक अच्छी खासी तादाद है। जो लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि योगी जी ने अमन मणि के साथ मंच साझा किया, वह आज तक नहीं पूछे कि योगी जी केशव मौर्या के साथ मंच कैसे साझा कर रहे हैं। नैतिकता का मानक एकतरफा नहीं हो सकता और वह जाति,धर्म तथा क्षेत्र के आधार पर विभेदकारी नहीं होना चाहिए। इसी का रोना एक बार विनय कटियार भी रोए थे जब वे पार्टी में बाबू सिंह कुशवाहा को शामिल किए थे। बाद में पार्टी हाईकमान के आग्रह पर बाबू सिंह कुशवाहा की सदस्यता निरस्त कर दी गई थी तथा विनय कटियार को यह एहसास हुआ था कि उनकी बात को महत्व इसलिए नहीं दिया गया क्योंकि उनकी चमड़ी काली थी तथा पिछड़े वर्ग का होने के नाते उनको यह अपमान झेलना पड़ा। केशव मौर्य के संरक्षक अशोक सिंघल थे तथा उनकी सेवा करने के कारण उनके समस्त पाप धुल गए तथा वे तपे-तपाये सोने के समान पवित्र हो गए। भगवान शंकर के गले में तमाम सांप लिपटे रहते हैं तथा विषधर होने के बावजूद पूजनीय होते हैं। मैं केशव मौर्या के खिलाफ कोई व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं कर रहा तथा मेरे कहने का आशय मात्र इतना है कि अशोक सिंघल जी की चरण सेवा से केशव मौर्या न केवल पूजनीय हो गए बल्कि उनके आपराधिक इतिहास की कहीं चर्चा नहीं होती है। गोरखनाथ मंदिर का भी अपना एक दिव्य इतिहास रहा है। महंत जी के शरणागत होते-होते ओम प्रकाश पासवान के सारे पाप धुल गए तथा वे रत्नाकर ना रहकर वाल्मीकि बन बैठे। पुनः जैसे कोई सामान फ्रिज से निकाला जाए तो बाहर सड़ने लगता है, उसी प्रकार गोरखनाथ Temple के बाहर जाते-जाते भाजपा की निगाह में ओमप्रकाश पासवान का आपराधिक स्वरुप सामने आने लगा। हर पार्टी को अपना अपराधी अपराधी नहीं लगता है तथा वह अंगुलीमाल नजर आता है। यही हर पार्टी की लीला है।
TV चैनलों पर बार-बार यह सवाल पूछा जा रहा है कि तीन-चौथाई बहुमत के होने के बावजूद अमन मणि त्रिपाठी को क्यों साथ लिया जा रहा है?
उत्तर है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में तथा विशेष रुप से पूर्वांचल में अन्य दलों के मुकाबले भाजपा में ब्राह्मण समाज के बाहुबलियों की एक Crisis आ गई है। लिहाजा जब किसी पंडित जी पर एक मामूली झटका भी लगा तो अच्छी खासी आलोचना Facebook पर होने लगी कि योगी जी जातिवाद कर रहे हैं। स्थानीय जनता में भी दबी जवान से इन चर्चाओं को हवा दी गई। अन्य समाज के बाहुबली अन्य दलों की भांति भाजपा में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं लेकिन केशव मौर्या के मुकाबले किसी दिनेश शर्मा को खड़ा करना पड़ता है। हरिशंकर तिवारी जी के बच्चों के बसपा में चले जाने के बाद विशेष रुप से गोरखपुर मंडल में एक ऐसा Vacuum पैदा हो गया है जिसका एहसास भाजपाइयों को तब हुआ जब हाते को छूते ही योगी जी पर आरोपों की बौछार हो गई। ब्राह्मणद्रोही के रूप में उनके खिलाफ हवा फैलाने की कोशिश की गई। बृज भूषण सिंह तथा रमाकांत यादव जैसे बलवान लोग भाजपा को सुशोभित कर रहे हैं तथा केशव मौर्या जैसे लोग भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं तो ऐसी स्थिति में करवरिया परिवार के जेल में रहने के कारण किसी भी ब्राह्मण पर कार्रवाई करने पर एक गलत संदेश जाता तथा इस कमी को पूरा करने के लिए अमन मणि त्रिपाठी एक उपयुक्त पात्र के रूप में दिखाई दिए। अगर वह भाजपा में रहे होते तो हाते वाले कांड के बाद सोशल मीडिया तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जितनी हलचल हुई, उतनी नहीं होती। जनता को यह एहसास होता कि योगी जी किसी जाति के खिलाफ नहीं है बल्कि किसी व्यक्ति के खिलाफ हैं और अमन मणि भी सत्संग पाकर ओम प्रकाश पासवान, रमाकांत यादव, बृजभूषण सिंह तथा केशव मौर्या की भांति सत्प्रकृति के बनने लगते। सत्संगति की महिमा शास्त्रों में जगह-जगह पर गाई गयी है।
कौन कितना बड़ा अपराधी है तथा कौन नहीं है इसके बारे में उसके आपराधिक इतिहास के आधार पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। कई ऐसे मामले देखे गए हैं जिसमें हत्या के आरोप में मुकदमा झेल रहे लोगों को जेल से इसलिए छूटना पड़ा है कि जिस आदमी के मारे जाने का आरोप था वही आदमी कचहरी में फिर खड़ा दिखाई देता है। न्यायालय में लंबित मामले तथा न्यायालय से निर्णीत मामले के बारे में मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता लेकिन ऐसे सैकड़ों मुकदमे हैं जिनमें उच्च न्यायालय के निर्णयों को उच्चतम न्यायालय के द्वारा पलट दिया गया है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय में भी कई ऐसे मामले हैं जिनमें उसी साक्ष्य के आधार पर बेंच के एक माननीय न्यायमूर्ति ने किसी को दोषी माना है तो दूसरे लोगों ने कभी सहमति व्यक्त की है तो कभी उसी साक्ष्य के आधार पर निर्दोष माना है। अपने कलेजे पर हाथ रखकर पूछे तो कोई जनप्रतिनिधि बता दे कि उनके इलाके में जो हत्याएं हुई है उनमें अधिकांश में जो लोग जेल गए हैं उनके बारे में उनकी Impresssion क्या है। अनौपचारिक रूप से पता कर लें कि क्या वे वास्तव में मौजूद थे? कोई TV CHANNEL या खोजी पत्रकार जन साधारण में यह Survey कर ले कि क्या मुल्जिम सही फंसे हैं?
मैंने अपने पूरे सेवाकाल में श्री महेश चंद्र द्विवेदी को छोड़कर किसी को प्रतिष्ठा का सवाल बनाकर Pursue करते नहीं देखा कि कोई भी नामजद अथवा प्रकाश में आया अभियुक्त हो तो उसके बचाव के विस्तृत बयान को Case Diary में दर्ज किया जाए तथा बचाव पक्ष के समस्त साक्ष्यों का संकलन करके एक सुविचारित तथा समन्वित निष्कर्ष निकाला जाए कि कौन दोषी है तथा कौन निर्दोष। 90% IPS अफसर इस सिद्धान्त के पोषक पाए गए हैं कि किसी एक आदमी का नाम निकालने से पूरे मुकदमे पर बुरा असर पड़ेगा, केस कमजोर होगा और फलस्वरूप बाकी मुल्जिम भी रिहा हो जाएंगे। अधिकांश मामलों में हत्याऐं सुपारी देकर पेशेवर हत्यारों द्वारा कराई जाती हैं किंतु सारे अभियुक्तों के नामजद होने के कारण यह Scope ही नहीं बचता कि कोई पेशेवर हत्यारा Workout किया जा सके। कोई भी खोजी पत्रकार निर्णीत मामलों में अनौपचारिक जांच करके देखे तो पाएगा कि 90% मामलों में मुल्जिम गलत फंसाये गए है।इसके अलावा इससे भी बड़ा Scandal है फर्जी गवाहों का। जो लोग वास्तव में हत्या होते देखते हैं उसमें से 95% इतनी दहशत में आ जाते हैं कि वे किसी भी क़ीमत पर चाहे कोई उनकी जान ही ले ले लेकिन वे यह स्वीकार नहीं कर सकते कि उन्होंने हत्या को घटित होते देखा है। गवाही में वादी द्वारा थानाध्यक्ष से वार्ता करके ऐसे मजबूत कलेजे के पारिवारिक साथियों के नाम FIR में लिखाये जाते हैं जोकि मौका तो छोड़िए दूर-दूर तक भी मृतक के पास नहीं होते। गौर से देखें तो प्रायः यह मिलेगा कि Victim को अस्पताल पहुंचाने में या थाने पहुंचाने में अथवा तत्काल 100 नंबर पर या थाने पर फोन करने में देर क्यों होती है?
यदि कोई पारिवारिक सदस्य या मित्र वास्तव में साथ होता तो अगर वह मृतक की रक्षा के लिए संघर्ष न भी कर पाता तो कम से कम 100 नंबर अथवा थाने पर तत्काल फोन तो कर ही देता। कोई भी खोजी पत्रकार यदि 100 हत्याओं में इस बिंदु की जांच करे कि घटना के कितने देर बाद पुलिस को सूचना दी गयी है तो आंखे खुली की खुली रह जाएंगी तथा यह पाया जाएगा कि अज्ञात राहगीरों द्वारा सूचना दी गयी है और काफी देर बाद घरवाले पहुंचे हैं तथा जब पूरा परिवार बुला लिया जाता है तो पूर्ण विचार विमर्श करके यह निर्णय लिया जाता है कि किस-किस का नाम अभियुक्तों की सूची में डाला जाए तथा किन लोगों का नाम साक्षियों(गवाह) की सूची में डाला जाए। अभियुक्तों में ऐसे लोगो का नाम लिखा जाता है जिनसे शत्रुता होती है तथा गवाहों में उन लोगों का नाम लिखा जाता है जो परिवार के होते हैं अथवा पारिवारिक मित्र होते हैं और भरसक इतने होशियार होते हैं कि जिरह के दौरान उन्हें अभियुक्तों के वकील उखाड़ न सकें तथा वे कलेजे के इतने मजबूत हों तथा दिमाग के इतने तेज हों कि वे आखिर तक डटे रह सकें। ऐसी स्थिति में किसी भी आपराधिक इतिहास वाले आदमी को अथवा Under Trial को अथवा Convict तक को कोई यह दावे के साथ नहीं कह सकता कि यह तो अभियुक्त होगा ही होगा। माननीय न्यायालय तो अपने सामने उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर Examination-In-Chief , Cross Examination तथा बहस के आधार पर साक्ष्य का समग्र मूल्यांकन कर के निर्णय सुनाता है किंतु सम्पूर्ण सत्य तो कुछ और ही होता है जो कभी न्यायालय के सामने कभी पेश ही नही किया जाता। यह मैं कोई Fiction के रूप में अनर्गल प्रलाप नहीं कर रहा हूं बल्कि 40 वर्ष की सेवा में जो अपनी आँखों से देखा और सुना है, जो गपशप में मित्रों से सुना तथा विभिन्न प्रदेश स्तरीय तथा राष्ट्रीय बैठकों में विचार-विमर्श के दौरान सुना है उसका यथार्थ चित्रण दे रहा हूं। जिसे विश्वास ना हो वह इन बिंदुओं पर स्वयं Survey कर अपने निष्कर्ष निकाल ले।
सत्य वही नहीं है जो आंखों से दिखाई दे रहा है तथा कानों से सुनाई दे रहा है। इनसे भी हटकर तमाम परिस्थितियां ऐसी होती हैं जिनकी यथार्थ के निर्धारण में अपनी उपयोगिता होती है।
अमर मणि त्रिपाठी के मामले में समाचार पत्रों में यह खबर प्रकाशित हुई थी कि संबंधित थाने में एक दरोगा ने थाने की GD में यह Entry की थी कि कवियत्री जी के निवास स्थल पर संदिग्ध परिस्थितियों में मंत्री जी का आना-जाना है तथा किसी दुर्घटना की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। समाचार पत्र में यह भी था कि मंत्री जी ने अपने रसुख से उस दरोगा का गैर-जनपद स्थानांतरण करवा दिया था तथा उस दरोगा ने पुनः अपना स्थानांतरण रुकवा कर अपनी नियुक्ति उसी थाने में करवा ली थी।यह खबर सत्य है या असत्य- में कुछ नही कह सकता लेकिन यदि सत्य हो तो यह जांच का विषय होना चाहिये था कि क्या बिना अमर मणि के किसी बराबरी के अथवा उनसे बड़े कद के नेता अथवा अधिकारी के निर्देश अथवा संरक्षण के क्या कोई दरोगा कोई प्रतिकूल तथ्य थाने की GD में लिखने की हिम्मत कर सकता है?
यद्यपि इसकी संभावना कम है लेकिन तर्क के लिए 1% मान भी लिया जाए कि कोई मनबढ़ दरोगा रंगबाजी में अपने पर आकर ऐसा कर भी डाले तो बिना किसी राजनैतिक अथवा प्रशासनिक संरक्षण के क्या वह अपना स्थानांतरण निरस्त करवा कर उसी थाने पर फिर वापस आ पाता?
इस रसूख का व्यक्तित्व कौन था तथा इसके पीछे उसका क्या निहित उद्देश्य था?
इसको उद्द्घाटित करने के लिये न्यायपालिका के माध्यम से दबाव बनाने का कोई प्रयास अमर मणि द्वारा संभवतः नही किया गया क्योंकि इसके अलावा यह चिंता उनके मन में थी कि प्याज की परतों की तरह मुकदमे की अधिक परतें उधेड़े जाने पर कहीं वह फस न जाएं। इसके अलावा समाचार पत्रों के अनुसार एक SIM भी अभियुक्तों के पास से मिला था जिसकी गहराई से जांच नहीं हुई कि यह सिम किसका था और वह अभियुक्तों के पास कैसे आया? इसके अलावा अभियुक्तों के Call Detail के आधार पर यह पता करने की कोशिश नहीं हुई कि उनके किस-किस से संबंध थे ? जितना समय अमर मणि त्रिपाठी ने अपने बचाव में साक्ष्य बनाने में लगाया उतना समय यदि साक्ष्यों के विश्लेषण में लगाया होता तो स्थिति कुछ और हो सकती थी। सामान्यतया यदि किसी की जानकारी में कोई हत्या हो रही हो तो मनोविज्ञान यह कहता है कि कहीं ना कहीं का दौरा दिखा कर वह व्यक्ति उस दिन उस शहर में नहीं रह पाएगा जिस शहर में वह हत्याकांड हो रहा है। अमरमणि त्रिपाठी कहीं का भ्रमण दिखाकर लखनऊ से हट सकते थे किंतु जब कवियित्री जी की हत्या की खबर फैली तो उस समय वह अपने निवास में विराजमान थे। राष्ट्रपति का क्षमादान तक अस्वीकृत हो जाने के बावजूद और न्यायालय में समस्त उपचार खत्म होने के बावजूद एक आतंकवाद के आरोपी के लिए अगर प्रशांत भूषण माननीय उच्चतम न्यायालय को रात में खुलवा सकते हैं तो जब तक जीवन है तब तक संपूर्ण न्याय के लिए किसी भी आरोपी के पास अतिरिक्त साक्ष्य के साथ माननीय उच्चतम न्यायालय में बारंबार जाने का अधिकार है किंतु अमरमणि त्रिपाठी इस अधिकार का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि मुझे लगता है कि वह निराश, हताश तथा उदास हो गए हैं और परिणाम स्वरूप अवसादग्रस्त।
अमनमणि त्रिपाठी पर जो आरोप लगे हैं उन पर मैं कोई टिप्पणी इसलिए नहीं कर रहा क्योंकि निर्णीत मामले पर टिप्पणी की जा सकती है किंतु जो मामला न्यायालय में लंबित है उस पर कोई टिप्पणी करना न्यायालय की अवमानना है तथा कोई भी टिप्पणी न्यायालय के सामने ही की जा सकती है। किंतु यह एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि जब तक कोई व्यक्ति दोष सिद्ध ना हो जाए तब तक वह मात्र न्यायालय में मुकदमा लंबित होने के कारण अपराधी नहीं कहा जा सकता है।
अटल विहारी वाजपेई जी दर्जनों बार जयललिता से शाल ग्रहण कर चुके हैं तथा कई बार मंच भी साझा कर चुके हैं जबकि जयललिता भ्रष्टाचार के आरोपों से युक्त थीं। जिन आरोपों में जिला जज ने जयललिता और उनके सहयोगियों को सजा दी उसी मुकदमे में उच्च न्यायालय ने उन्हें निर्दोष घोषित करते हुए निर्णय सुना दिया तथा पुनः उच्चतम न्यायालय ने हाईकोर्ट के निर्णय से असहमति व्यक्त करते हुए पुनर्विचार किया। लालू से भी अन्ना के नाम का जयकारा लगाने वाले केजरीवाल गले मिले तथा मंच साझा करना तो एक बहुत छोटी चीज थी।
राजनीति में कोई अछूत नहीं होता है आवश्यकता पर किसी भी चीज का सहारा लेना पड़ता है। चाणक्य ने नंद वंश के उन्मूलन के लिए न केवल चंद्रगुप्त का उपयोग किया बल्कि विषकन्याओं का भी उपयोग किया। Europe में माना जाता है कि "#Politics_is_the_last_refuge_of_the_scoundrel" तथा भारतीयों की मान्यता है कि
"#वेश्यांगनेव्_नृप_नीतिरनेकरूपा"
अर्थात राजा की नीति को किसी सिद्धांत से बंधा नहीं होना चाहिए बल्कि वेश्या की तरह समय-समय पर राजा की नीति भी आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित होनी चाहिए। राजनीति में केवल एक ही सिद्धांत चलता है कि हमारा कोई सिद्धांत नहीं।
योगी जी के मंच साझा करने से ब्राह्मणों को दिग्भ्रमित करने वाली तमाम अफवाहें एक साथ चर्चा के बाहर हो गईं तथा एक नई चर्चा प्रारंभ हो गई। इसMission की बिना कुछ कहे बिना किसी को शामिल किए यह स्वयं में यह एक उपलब्धि है तथा योगी जी के राजनैतिक कौशल का Master Stroke।

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