#ये_बाण_किसके_हैं_मायावती_ के_अथवा_आनंद_के?
#नसीमुद्दीन_मुनाफिक_हैं_मु सलमानों_को_उनसे_कोई_सहानुभ ूति_नहीं।
अगर मायावती का वही स्वरुप है जो नसीमुद्दीन, स्वामी प्रसाद मौर्या, जुगुल किशोर और आर के चौधरी बताते हैं तो यदि मायावती गिरोह की मलिका थीं तो ये चारों इनके शार्प शूटर।
लोगों को लग रहा है कि मायावती बिखर रही हैं किन्तु ऐसे विचार वाले लोग यह भूल जाते हैं कि पैर में फीलपॉव हो जाने से न तो पैर की ताकत बढ़ती है और न ही गले में घेंघा हो जाने से आवाज सुरीली हो जाती है।
यह ऑपरेशन आनंद का पहला अध्याय है और कई बार मायावती यह मन बना चुकी थी कि नसीमुद्दीन को kick करना है किन्तु मायावती के पैर पकड़ कर नसीमुद्दीन वगैरह उनके गुस्से को ठंडा कर लेते थे।
बसपा की शैली प्रारम्भ से ही मनुवादी रही है। जिस प्रकार प्राचीन काल में राजाओं के दरबार में केवल एक सिंहासन होता था तथा ऋषियों के आश्रम में केवल महर्षि का आसान होता था तथा शेष सभी लोग जमीन पर बैठ कर स्वयं को धन्य समझते थे उसी प्रकार कांशीराम और मायावती के अलावा किसी के नसीब में कुर्सी पर बैठना नहीं लिखा था।
सतीश मिश्रा और शशांक शेखर के युग में यह परम्परा कुछ कमजोर पड़ी किन्तु जिस प्रकार चरण पकड़वाना ब्राह्मण की तथा चापलूसी करवाना क्षत्रिय की कमजोरी रही है उसी प्रकार यह दोनों ही विशेषतायें बसपा में रहते हुए भी मायावती को मनुवादी संस्कारों से ओत प्रोत बनाये रखी।
काशीराम में अहंकार भले रहा हो किन्तु चरण पकड़वाना और चापलूसी सुनना काशीराम की कमजोरी नहीं थी।
इन कमजोरियों के चलते जैसे शरीर में कफ़ भर जाता है वैसे ही बसपा में तमाम अवांछनीय तत्व भर उठे जिनके वजह से बसपा को जो भी लाभ हुआ हो, उससे सौ गुना नुकसान हुआ।
जब कभी मायावती अपनी आँखें तरेरती थीं तब तब यह लोग चरणों में लेटकर अभयदान ले लेते थे। कुछ लोगों को आसानी से गुमराह किया जा सकता है तथा दो टके के बिना किसी जनाधार के नेता इस प्रकृति के प्रयास किया करते हैं।
राजीव गांधी से लेकर राहुल गांधी तक के युग में दिग्विजय सिंह जैसे तमाम नेता इंदिरा गांधी के जमे जमाए साम्राज्य को दीमक की तरह चाट गए।
इसी तरह रामगोपाल यादव जैसे महान जन नेता मुलायम सिंह जैसे धरती पुत्रों के लगाए हुए मधुमक्खी के छत्ते की सारी शहद चाट जाते हैं। मायावती देखने में कितनी ही कठोर क्यों न रही हों किंतु उनके कार्यकाल में चापलूसों की पौ बारह रही तथा वे निर्णायक कदम नहीं उठा पाईं। अखिलेश यादव तथा राजीव गांधी की भांति मायावती भी जितना बदनाम हुईं उसका 10 प्रतिशत भी न कमा सकीं। यदि राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, अखिलेश यादव तथा मायावती जैसी महान हस्तियों को रुपया लेने की ही तमीज होती तो यादव सिंह जैसे अधिकारी कहाँ से पैदा होते जिनके पास अथाह संपदा होती। तमाम तृतीय श्रेणी के कर्मचारियों के यहां छापों में कुबेर की संपदा मिली है IAS अफसरों के पास तो अकूत सम्पत्ति भरी पड़ी है कि योगीजी के बार बार निर्देश देने के बावजूद वे यह सूची नहीं बना पा रहे हैं। आज भी केवल उत्तर प्रदेश कैडर के अफसरों की सूची देख ली जाए कि कौन कौन से अधिकारियों के नाम Deputation में क्लियर हुए हैं तो इनमें से तमाम ऐसे अधिकारी चुने गए हैं जिनके विरुद्ध न केवल CBI द्वारा भ्रष्टाचार की जांचे की जा रही हैं बल्कि ऐसे तमाम अधिकारी हैं जिनके विरुद्ध आरोप प्रमाणित होने के बाद CBI ने अभियोजन की स्वीकृति मांग रखी है। जिनके विरुद्ध CBI द्वारा अभियोजन की स्वीकृति मांगी गई है ऐसे IAS अफसरों का चयन केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए कैसे किया गया - वह भी मोदी सरकार तथा योगी सरकार द्वारा- यह शोध का विषय है। ये महापुरुष हर सरकार के चहेते रहे हैं। यदि मुलायम सिंह यादव तथा इंदिरा गांधी कभी कोई गलत काम भी करते तो इन महान अधिकारियों को कुछ चूरन चटनी चाटने को मिल गई होती तथा बीच के पार्टी नेता भी पापी पेट को शांत करने के लिए कुछ पा जाते किंतु अधिकांश भाग दिहाड़ी मजदूर चाट जाएं और मालिक को चूरन चटनी मिले- ऐसा इंदिरा गांधी और मुलायम सिंह के जमाने में संभव नहीं था। इंदिरा गांधी और मुलायम सिंह यादव ईमानदार थे या बेईमान इसकी कोई व्याख्या मैं यहां नही कर रहा हूँ मैं केवल इतना कहना चाह रहा हूँ कि मोटा माल कोई और खाये तथा बोफोर्स की हड्डी राजीव के गले में अटके ऐसा इंदिरा जी के जमाने में कोई सोच नही सकता था। जिस विश्वनाथ प्रताप सिंह की घिघ्घी इंदिरा गांधी के चेलों चमचों के आगे बंध जाती थी वे राजीव गांधी के जमाने मे शेर की तरह दहाड़ने लगे। राहुल गांधी के जमाने में अहमद पटेल जैसे लोग मालिक बने बैठे रहे तथा सोनिया उनके हाथों की कठपुतली बन गई। मायावती तथा अखिलेश- बुआ तथा बबुआ के जमाने में IAS अफसर तथा सामंत मंत्री 90% मलाई चाट गए तथा मात्र कुछ चूरन चटनी मुख्य मालिक को मिली और बदले में मिला बदनामी का टोकरा। बीच के मंत्रियों ने भी मोटी रकम कमाई। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि अखिलेश यादव तथा मायावती गरीबी रेखा के नीचे गुजारा कर रहे हैं लेकिन मैं मात्र इतना कहना चाहता हूं कि इनके सामंत और नौकर इनसे कहीं मजबूत हैं। इसी के बूते पर हवा में राजनीति करने वाले चिदंबरम जैसे नेता तक यह विचार व्यक्त करने की औकात रखने लगे हैं कि राहुल गांधी राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने लायक हैं या नहीं। कांग्रेस में प्रियंका गांधी और बसपा में आनंद-ये अच्छे या बुरे इसकी विवेचना मैं इस प्रसंग में नहीं कर रहा हूँ लेकिन इतना ध्रुव सत्य है कि कुकर्म नसीमुद्दीन करें और बदनामी आनंद झेलें- इतना बरगला सकने की औकात अब किसी नसीमुद्दीन में नहीं है। यह ठीक वैसे ही है जैसे सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में राहुल को पप्पू के नाम से बदनाम करा देने वाले कांग्रेस के महारथियों की औकात प्रियंका के बारे में एक बयान जारी करने की नहीं रह जायेगी। अगर कभी प्रियंका राजनैतिक रंगमंच पर आई तो दर्जनों कांग्रेसी महारथी ठोकर खाकर औंधे मुंह जमीन पर गिरे मिलेंगे। यह बसपा की राजनीति में आनंद युग का पहला अध्याय है तथा बहुत जल्द ही बसपा में कुछ और भी निर्णायक कदम उठाए जाएंगे। नसीमुद्दीन की वजह से बसपा को बहुत नुकसान उठाना पड़ा।नसीमुद्दीन ने किसी दमदार मुसलमान को बसपा में ससम्मान नहीं रहने दिया ताकि मायावती के सामने कोई दूसरा मुसलमान उनका विकल्प बन कर न उभर सके। इसी तरह सतीश मिश्रा ने किसी जनाधार वाले ब्राह्मण को बसपा में फटकने नहीं दिया।
Writing on the walls को पढ़ने से ऐसा लगता है कि आनंद युग का दूसरा झटका सतीश मिश्रा को मिलने की संभावना है तथा वे यह याद कर करके अपना सिर धुन रहे होंगे कि उन्होंने अपने समाज की कितनी सेवाएं की।
नसीमुद्दीन से मुस्लिम समाज को रंच मात्र भी सहानुभूति नहीं है। नसीमुद्दीन ने मुसलमानों को भड़काने के लिए लिखा है कि मायावती ने मुस्लिम उलेमाओं को कुत्ता तथा अन्य अपशब्द कहे। नसीमुद्दीन से कोई पूछे कि जब मायावती ने मुस्लिम उलेमाओं की तौहीन की तो उसी समय नसीमुद्दीन ने कम से कम पार्टी से इस्तीफा क्यों नहीं दे दिया तथा मुस्लिम उलेमाओं के लिए की गई गाली गलौज पर सम्प्रदायिकता फैलाने का मुकदमा क्यों नहीं कायम कराया?
आज भी वे मुस्लिम उलेमाओं के अपमान के लिए मुकदमा क्यों नहीं दर्ज करा रहे हैं?
हकीकत यह है कि रोटी के टुकड़े के लिए लड़ने वाले जीवधारी किसी भी उलेमा के अपमानित होने पर विचलित नहीं हो सकते और तब तक नहीं बोलेंगे जब तक न्यूटन के सेब की तरह अपमान की आफत उनके सिर पर न गिर पड़े। बात इस्लाम की करेंगे पर वास्तविक अर्थों में नसीमुद्दीन का इस्लाम से अथवा उलेमा से कोई मतलब नहीं है। वास्तविक अर्थों में वे मुनाफिक हैं जो देखने में मुसलमान लगते हैं लेकिन इस्लाम से उनका कोई लेना देना नहीं।
नौ सौ चुहिया खा के बिल्ली हज करने चली
ऐसे मुनाफिकों को उलेमा घास नहीं डालेंगे।
नसीमुद्दीन के हटाये जाने से मुस्लिमों में बसपा की पैठ और मजबूत होगी।
#नसीमुद्दीन_मुनाफिक_हैं_मु
अगर मायावती का वही स्वरुप है जो नसीमुद्दीन, स्वामी प्रसाद मौर्या, जुगुल किशोर और आर के चौधरी बताते हैं तो यदि मायावती गिरोह की मलिका थीं तो ये चारों इनके शार्प शूटर।
लोगों को लग रहा है कि मायावती बिखर रही हैं किन्तु ऐसे विचार वाले लोग यह भूल जाते हैं कि पैर में फीलपॉव हो जाने से न तो पैर की ताकत बढ़ती है और न ही गले में घेंघा हो जाने से आवाज सुरीली हो जाती है।
यह ऑपरेशन आनंद का पहला अध्याय है और कई बार मायावती यह मन बना चुकी थी कि नसीमुद्दीन को kick करना है किन्तु मायावती के पैर पकड़ कर नसीमुद्दीन वगैरह उनके गुस्से को ठंडा कर लेते थे।
बसपा की शैली प्रारम्भ से ही मनुवादी रही है। जिस प्रकार प्राचीन काल में राजाओं के दरबार में केवल एक सिंहासन होता था तथा ऋषियों के आश्रम में केवल महर्षि का आसान होता था तथा शेष सभी लोग जमीन पर बैठ कर स्वयं को धन्य समझते थे उसी प्रकार कांशीराम और मायावती के अलावा किसी के नसीब में कुर्सी पर बैठना नहीं लिखा था।
सतीश मिश्रा और शशांक शेखर के युग में यह परम्परा कुछ कमजोर पड़ी किन्तु जिस प्रकार चरण पकड़वाना ब्राह्मण की तथा चापलूसी करवाना क्षत्रिय की कमजोरी रही है उसी प्रकार यह दोनों ही विशेषतायें बसपा में रहते हुए भी मायावती को मनुवादी संस्कारों से ओत प्रोत बनाये रखी।
काशीराम में अहंकार भले रहा हो किन्तु चरण पकड़वाना और चापलूसी सुनना काशीराम की कमजोरी नहीं थी।
इन कमजोरियों के चलते जैसे शरीर में कफ़ भर जाता है वैसे ही बसपा में तमाम अवांछनीय तत्व भर उठे जिनके वजह से बसपा को जो भी लाभ हुआ हो, उससे सौ गुना नुकसान हुआ।
जब कभी मायावती अपनी आँखें तरेरती थीं तब तब यह लोग चरणों में लेटकर अभयदान ले लेते थे। कुछ लोगों को आसानी से गुमराह किया जा सकता है तथा दो टके के बिना किसी जनाधार के नेता इस प्रकृति के प्रयास किया करते हैं।
राजीव गांधी से लेकर राहुल गांधी तक के युग में दिग्विजय सिंह जैसे तमाम नेता इंदिरा गांधी के जमे जमाए साम्राज्य को दीमक की तरह चाट गए।
इसी तरह रामगोपाल यादव जैसे महान जन नेता मुलायम सिंह जैसे धरती पुत्रों के लगाए हुए मधुमक्खी के छत्ते की सारी शहद चाट जाते हैं। मायावती देखने में कितनी ही कठोर क्यों न रही हों किंतु उनके कार्यकाल में चापलूसों की पौ बारह रही तथा वे निर्णायक कदम नहीं उठा पाईं। अखिलेश यादव तथा राजीव गांधी की भांति मायावती भी जितना बदनाम हुईं उसका 10 प्रतिशत भी न कमा सकीं। यदि राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, अखिलेश यादव तथा मायावती जैसी महान हस्तियों को रुपया लेने की ही तमीज होती तो यादव सिंह जैसे अधिकारी कहाँ से पैदा होते जिनके पास अथाह संपदा होती। तमाम तृतीय श्रेणी के कर्मचारियों के यहां छापों में कुबेर की संपदा मिली है IAS अफसरों के पास तो अकूत सम्पत्ति भरी पड़ी है कि योगीजी के बार बार निर्देश देने के बावजूद वे यह सूची नहीं बना पा रहे हैं। आज भी केवल उत्तर प्रदेश कैडर के अफसरों की सूची देख ली जाए कि कौन कौन से अधिकारियों के नाम Deputation में क्लियर हुए हैं तो इनमें से तमाम ऐसे अधिकारी चुने गए हैं जिनके विरुद्ध न केवल CBI द्वारा भ्रष्टाचार की जांचे की जा रही हैं बल्कि ऐसे तमाम अधिकारी हैं जिनके विरुद्ध आरोप प्रमाणित होने के बाद CBI ने अभियोजन की स्वीकृति मांग रखी है। जिनके विरुद्ध CBI द्वारा अभियोजन की स्वीकृति मांगी गई है ऐसे IAS अफसरों का चयन केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए कैसे किया गया - वह भी मोदी सरकार तथा योगी सरकार द्वारा- यह शोध का विषय है। ये महापुरुष हर सरकार के चहेते रहे हैं। यदि मुलायम सिंह यादव तथा इंदिरा गांधी कभी कोई गलत काम भी करते तो इन महान अधिकारियों को कुछ चूरन चटनी चाटने को मिल गई होती तथा बीच के पार्टी नेता भी पापी पेट को शांत करने के लिए कुछ पा जाते किंतु अधिकांश भाग दिहाड़ी मजदूर चाट जाएं और मालिक को चूरन चटनी मिले- ऐसा इंदिरा गांधी और मुलायम सिंह के जमाने में संभव नहीं था। इंदिरा गांधी और मुलायम सिंह यादव ईमानदार थे या बेईमान इसकी कोई व्याख्या मैं यहां नही कर रहा हूँ मैं केवल इतना कहना चाह रहा हूँ कि मोटा माल कोई और खाये तथा बोफोर्स की हड्डी राजीव के गले में अटके ऐसा इंदिरा जी के जमाने में कोई सोच नही सकता था। जिस विश्वनाथ प्रताप सिंह की घिघ्घी इंदिरा गांधी के चेलों चमचों के आगे बंध जाती थी वे राजीव गांधी के जमाने मे शेर की तरह दहाड़ने लगे। राहुल गांधी के जमाने में अहमद पटेल जैसे लोग मालिक बने बैठे रहे तथा सोनिया उनके हाथों की कठपुतली बन गई। मायावती तथा अखिलेश- बुआ तथा बबुआ के जमाने में IAS अफसर तथा सामंत मंत्री 90% मलाई चाट गए तथा मात्र कुछ चूरन चटनी मुख्य मालिक को मिली और बदले में मिला बदनामी का टोकरा। बीच के मंत्रियों ने भी मोटी रकम कमाई। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि अखिलेश यादव तथा मायावती गरीबी रेखा के नीचे गुजारा कर रहे हैं लेकिन मैं मात्र इतना कहना चाहता हूं कि इनके सामंत और नौकर इनसे कहीं मजबूत हैं। इसी के बूते पर हवा में राजनीति करने वाले चिदंबरम जैसे नेता तक यह विचार व्यक्त करने की औकात रखने लगे हैं कि राहुल गांधी राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने लायक हैं या नहीं। कांग्रेस में प्रियंका गांधी और बसपा में आनंद-ये अच्छे या बुरे इसकी विवेचना मैं इस प्रसंग में नहीं कर रहा हूँ लेकिन इतना ध्रुव सत्य है कि कुकर्म नसीमुद्दीन करें और बदनामी आनंद झेलें- इतना बरगला सकने की औकात अब किसी नसीमुद्दीन में नहीं है। यह ठीक वैसे ही है जैसे सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में राहुल को पप्पू के नाम से बदनाम करा देने वाले कांग्रेस के महारथियों की औकात प्रियंका के बारे में एक बयान जारी करने की नहीं रह जायेगी। अगर कभी प्रियंका राजनैतिक रंगमंच पर आई तो दर्जनों कांग्रेसी महारथी ठोकर खाकर औंधे मुंह जमीन पर गिरे मिलेंगे। यह बसपा की राजनीति में आनंद युग का पहला अध्याय है तथा बहुत जल्द ही बसपा में कुछ और भी निर्णायक कदम उठाए जाएंगे। नसीमुद्दीन की वजह से बसपा को बहुत नुकसान उठाना पड़ा।नसीमुद्दीन ने किसी दमदार मुसलमान को बसपा में ससम्मान नहीं रहने दिया ताकि मायावती के सामने कोई दूसरा मुसलमान उनका विकल्प बन कर न उभर सके। इसी तरह सतीश मिश्रा ने किसी जनाधार वाले ब्राह्मण को बसपा में फटकने नहीं दिया।
Writing on the walls को पढ़ने से ऐसा लगता है कि आनंद युग का दूसरा झटका सतीश मिश्रा को मिलने की संभावना है तथा वे यह याद कर करके अपना सिर धुन रहे होंगे कि उन्होंने अपने समाज की कितनी सेवाएं की।
नसीमुद्दीन से मुस्लिम समाज को रंच मात्र भी सहानुभूति नहीं है। नसीमुद्दीन ने मुसलमानों को भड़काने के लिए लिखा है कि मायावती ने मुस्लिम उलेमाओं को कुत्ता तथा अन्य अपशब्द कहे। नसीमुद्दीन से कोई पूछे कि जब मायावती ने मुस्लिम उलेमाओं की तौहीन की तो उसी समय नसीमुद्दीन ने कम से कम पार्टी से इस्तीफा क्यों नहीं दे दिया तथा मुस्लिम उलेमाओं के लिए की गई गाली गलौज पर सम्प्रदायिकता फैलाने का मुकदमा क्यों नहीं कायम कराया?
आज भी वे मुस्लिम उलेमाओं के अपमान के लिए मुकदमा क्यों नहीं दर्ज करा रहे हैं?
हकीकत यह है कि रोटी के टुकड़े के लिए लड़ने वाले जीवधारी किसी भी उलेमा के अपमानित होने पर विचलित नहीं हो सकते और तब तक नहीं बोलेंगे जब तक न्यूटन के सेब की तरह अपमान की आफत उनके सिर पर न गिर पड़े। बात इस्लाम की करेंगे पर वास्तविक अर्थों में नसीमुद्दीन का इस्लाम से अथवा उलेमा से कोई मतलब नहीं है। वास्तविक अर्थों में वे मुनाफिक हैं जो देखने में मुसलमान लगते हैं लेकिन इस्लाम से उनका कोई लेना देना नहीं।
नौ सौ चुहिया खा के बिल्ली हज करने चली
ऐसे मुनाफिकों को उलेमा घास नहीं डालेंगे।
नसीमुद्दीन के हटाये जाने से मुस्लिमों में बसपा की पैठ और मजबूत होगी।

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