Wednesday, 12 July 2017

यमराज से साक्षात्कार| काल-पाश से है हुआ मुक्त भक्त शंकर का| (भाग 1)

दूर हो रहा था अंधकार जगतीतल से,
तारक समूह स्वत्व अंबर में खोता था।
शीतल समीर मंद-मंद बहने लगा था,
दल विहगों का उर हर्ष बीज बोता था।
शीश को उठाने का प्रयत्न करते थे कंज,
माल लहरों के सर चाव से संजोता था।
पहुंच रहा था चंद्र पश्चिम की देहली पे,
टाल कर रात का वितान प्रात होता था।।1।।
स्वर्ग की परी सा लिए कनक कलेवर को,
प्राची के महल में उषा की छवि झलकी।
बरस गया प्रकाश सारे जगती तल में,
गिरि-शिखरों से रवि गागरी जो छलकी।
पीने मधुरस पाटलों की मंजु प्यालियों का,
मोद भर उर पंक्ति मधुपों की ललकी।
होने लगे गीत विहगों के सब ओर और,
गूँजी ध्वनि स्वच्छ नदियों के कलकल की।।2।।
रवि रश्मियों के उतरे हैं यान वसुधा पे,
खोल मुख सकल सुमन हँसने लगे।
चाह मधुपों में रस पान करने की जगी,
जाकर सहर्ष पाटलों में बसने लगे।
चारों ओर सुरभित वात बहने लगा है,
लतिका-समूह तरुओं से लसने लगे।
ऊँघने लगे हैं गीदड़ों के दल डालियों पे,
कुमुद के वृन्द मुट्ठियों को कसने लगे।।3।।
होता जब अम्बर का अमल वितान और,
हेम-रंग रंजित उषा का गात होता था।
चारों ओर हर्ष की हिलोर फैलती थी जब,
सुमुनावली से सुरभित वात होता था।
जब विहगों के मधुगान गूंजते थे मंजू,
अमिय पराग युक्त जलजात होता था।
जब रात का वितान नष्ट कर रश्मियों से,
मनहारी सुषमा लिए प्रभात होता था।।4।।
क्रमशः

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