ऐसे मधु पूरित समय में ही नित्य प्रात,
भक्त शिव भोले आशुतोष त्रिपुरारी का।
साधना में निरत सदैव रहता था और,
नाम जपता था सदा कनक अहारी का।
नाम जपता था सदा कनक अहारी का।
किसी और के न द्वार जाता भूल के भी कभी,
शैलजा रमण का ही परम् पुजारी था।
शैलजा रमण का ही परम् पुजारी था।
शूल पाणि को ही था बसाए मन मंदिर में,
उनके ही रूप राशि छवि का भिखारी था।।5।।
उनके ही रूप राशि छवि का भिखारी था।।5।।
नाम जपता था आठों याम शिवशंकर का,
उनकी वरद् हस्त-छांव में विचरता।
उनकी वरद् हस्त-छांव में विचरता।
उनके ही पूजन में अन्तर रमाता सदा,
उनका ही रूप मन मंदिर में धरता।
उनका ही रूप मन मंदिर में धरता।
उनकी कृपा की अभिलाषा उर में थी बसीं,
उनकी ही वन्दना था बार-बार करता।
उनकी ही वन्दना था बार-बार करता।
उनके ही आत्मबल पाता था सदैव भक्त,
उनसे ही ज्ञानपुंज मानस में भरता।।6।।
उनसे ही ज्ञानपुंज मानस में भरता।।6।।
जल से सदैव नहलाता शिव शंकर को,
मोद भर अंतर में अक्षत चढ़ाता था।
मोद भर अंतर में अक्षत चढ़ाता था।
अपने करों से सदा दुग्ध से कराता स्नान,
विल्व पत्र का दे अर्घ अति सुख पाता था।
विल्व पत्र का दे अर्घ अति सुख पाता था।
मन्दार पुष्प से सजाता था उमेश शीश,
भाल पे सुरभि युक्त चन्दन लगाता था।
भाल पे सुरभि युक्त चन्दन लगाता था।
गाता था उमा पति की वन्दना में गीत और,
उनके पदों में नित्य मस्तक झुकाता था।।7।।
उनके पदों में नित्य मस्तक झुकाता था।।7।।
शिव के चरण पंकजों में लगता ध्यान,
उनकी ही अर्चना में समय बिताता था।
उनकी ही अर्चना में समय बिताता था।
धर्म के कार्य में सदैव रहता था रत,
नित्य सद्कर्म में ही मन को लगाता था।
नित्य सद्कर्म में ही मन को लगाता था।
भौतिक सुखों की चाह करता नहीं कदापि,
चाहे जितने हों न दुखों से भय खाता था।
चाहे जितने हों न दुखों से भय खाता था।
साधना सदैव करता था भोले शंकर की,
और किसी का भी नाम उसको न भाता था।।8।।
और किसी का भी नाम उसको न भाता था।।8।।
(क्रमशः)
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