Friday, 14 July 2017

यमराज से साक्षात्कार। काल-पाश से है हुआ मुक्त भक्त शंकर का। भाग 3

शंकर की भक्ति पर उसको अपार गर्व,
उनकी ही साधना से ध्यान न हटाता था।
चाहे कितने सबल झंझावात झकझोंरें,
डिगता कदापि न कभी भी भय खाता था।
रंच धन धाम की न चाहे उसको थी और,
शिव-रूप को ही मन मंदिर बिठाता था।
लाता था सदैव रसना में शिव नाम मंजू,
अन्य देवता को उसे धाम नहीं भाता था।।9।।
तन मन की सुधि रहती कदापि उसे,
शंकर की जब साधना में लीन होता था।
जपता था मंत्र जब नमः शिवाय का तो,
सोंचता था कुछ न उसी में बुद्धि खोता था।
लेशमात्र भी विकार रखता न अंतर में,
गहता विवेक सद्भावना संजोता था।
जिससे भला हो सदा सारे जगतीतल का,
वही उपकारी बीज विश्व मध्य बोता था।।10।।
नाम जपता था जब भोले शिव शंकर का,
चेतन क्या जड़ भी समस्त झूम जाते थे।
हंसने प्रसून लगते थे जगतीतल के,
अन्तर में विहग अपार सुख पाते थे।
सूर्य, चंद्र का भी रथ रूक-रुक जाता और,
तारक समूह रत्न राशियां संजाते थे।
लाते थे सुरभि वात के झकोर पंकजों से,
चाव भर उर में तड़ाग लहराते थे।।11।।
नाम सुन छाते मेघमाल नभ मण्डल में,
हर्ष ले अपार मोतियों के बरसाते थे।
बार-बार दामिनी भी झलक दिखाती और,
ठुमुक-ठुमुक के मयूर नाच जाते थे।
झूम-झूम पाटल पराग थे लुटाते तथा,
सुमन सुरभि गांठ खोल हरषाते थे।
घूम-घूम मधुप समूह मंजू गाते गीत,
विटपावली के वृन्द डोल-डोल भाते थे।।12।।
(क्रमशः)

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