Monday, 17 July 2017

यमराज से साक्षात्कार| काल-पाश से है हुआ मुक्त भक्त शंकर का| भाग 4

    नमः शिवाय की थी गूँजी ध्वनि चारों ओर,
    सब जड़ चेतन थे मोद भरने लगे।
    शंकर के नाम की पुनीत सुरसरि बही,
    सारे शिव भक्तगण स्नान करने लगे।
    बिन साधना के हुए नष्ट सबके त्रिताप,
    बिन धर्म किये सभी लोग तरने लगे।
    पाप शाप सभी महापापियों के हुए दूर,
    अंतर की पीर हर नाम हरने लगे।।13।।
    शंकर का नाम पड़ता था श्रवणों के मध्य,
    बिन पुण्य किये सभी पुण्य फल पाते थे।
    तीर्थ करने का नाम कोई भी न लेते अब,
    किसी देवता के लोग मंदिर न जाते थे।
    भक्ति रस में समस्त लोग पगते थे और,
    सभी लोग अन्तर अपार सुख लाते थे।
    बैठते सभी थे आके भक्त के ही चारों ओर,
    पल ये सभी के मन मंदिर को भाते थे।।14।।
    मात्र शिव शंकर का नाम जपता था भक्त,
    बदले में कुछ भी नहीं था चाह करता।
    उमा पति चरणों में भक्ति की ही याचना थी,
    अन्य वर मांगने का भाव न उभरता।
    साधना में लीन रहने की कामना थी मात्र,
    किंचित न भौतिक सुखों को उर धरता।
    हर की समायी शक्ति ऐसी मन मंदिर में,
    भूल कर के भी कभी काल से न डरता।।15।।
    आपकी उदारता है जगत प्रसिद्ध नाथ,
    सकल सुरों में मात्र आप एक भोले हैं।
    आप के तपोबल की थाह लगती न कभी,
    खाते आप संखिया, धतूर, भंग-गोले हैं।
    आप का त्रिशूल हर लेता असुरों के प्राण,
    आप के त्रिनेत्र में निहित अग्नि शोले हैं।
    डोले जो न भक्त आप की ही साधना से कभी,
    द्वार उनके लिए तो आठों याम खोले हैं।
    (क्रमशः)

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