उस अषाढ़ के प्रथम
दिवस को
कैसे प्रिये भुलाऊं
मैं |
बिना मिलन के गीत
प्रेम के
बोलो कैसे गाऊं मैं
||
जब आती है याद
तुम्हारी
विकल प्राण हो जाते
हैं |
भेज संदेशा प्रेम –
गीत से
सपनों में बुलवाते
हैं ||
पंख नहीं हैं, पंथ
दूर है
कैसे उड़ कर आऊँ मैं
|
विवश – कामना, विफल
साधना,
विनत नयन कैसे भूलूं
|
चाहे सब कुछ भूलूं
पर
मिलनातुर क्षण कैसे
भूलूं ||
कहीं न रति के
संस्पर्शन से
फिर अनंग बन जाऊं
मैं |
मैंने कहा –‘आज जाना
है’
तुम बोली –‘रुक जाओ
न’
आज रात फिर मिलें
प्रेम से
कुछ क्षण यहीं बिताओ
ना |
नयनों में आंसू भर
कर के
कैसे मिलन मनाऊं मैं
|
संगमरमरी अंस
प्रान्त का
मंथन गति से सहलाना
|
स्निग्ध कपोलों पर
श्यामल
केशों का घिर-घिर
लहराना ||
रोमांचक आनंद – कलश
वे
किस विधि से बिसराऊं
मैं |
थी कटि – गति चंचल
सरिता – सी
रति को अंक लगाती थी
|
रोम-रोम में आकर
बंकिम
देख तुम्हें ललचाती
थी ||
उस क्षण का आनंद कहो
प्रिय
कैसे अब बिसराऊँ मैं
|
रसमय ओंठों में छवि
भर कर
मदिर-मदिर मुसकान
सुमुखि |
कलित कपोलों की लाली
का
रसमय अलस विहान
सुमुखि ||
उस क्षण पड़ा छोड़ना,
उसकी
कैसे व्यथा सुनाऊँ
मैं |
संग बैठ कर खाना –
पीना
और मधुर वे बातें सब
|
व्यथित कर रहीं यहाँ
अकेले
में रतिहीना रातें
अब ||
अतुलनीय व्यामोह
तुम्हारा
कैसे धीरज पाऊँ मैं
|
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