Thursday, 7 September 2017

उस अषाढ़ के प्रथम दिवस को ..........



उस अषाढ़ के प्रथम दिवस को
कैसे प्रिये भुलाऊं मैं |
बिना मिलन के गीत प्रेम के
बोलो कैसे गाऊं मैं ||

जब आती है याद तुम्हारी
विकल प्राण हो जाते हैं |
भेज संदेशा प्रेम – गीत से
सपनों में बुलवाते हैं ||

पंख नहीं हैं, पंथ दूर है
कैसे उड़ कर आऊँ मैं |

विवश – कामना, विफल साधना,
विनत नयन कैसे भूलूं |
चाहे सब कुछ भूलूं पर  
मिलनातुर क्षण कैसे भूलूं ||

कहीं न रति के संस्पर्शन से
फिर अनंग बन जाऊं मैं |

मैंने कहा –‘आज जाना है’
तुम बोली –‘रुक जाओ न’
आज रात फिर मिलें प्रेम से
कुछ क्षण यहीं बिताओ ना |

नयनों में आंसू भर कर के
कैसे मिलन मनाऊं मैं |

संगमरमरी अंस प्रान्त का
मंथन गति से सहलाना |
स्निग्ध कपोलों पर श्यामल
केशों का घिर-घिर लहराना ||

रोमांचक आनंद – कलश वे
किस विधि से बिसराऊं मैं |

थी कटि – गति चंचल सरिता – सी
रति को अंक लगाती थी |
रोम-रोम में आकर बंकिम
देख तुम्हें ललचाती थी ||

उस क्षण का आनंद कहो प्रिय
कैसे अब बिसराऊँ मैं |

रसमय ओंठों में छवि भर कर
मदिर-मदिर मुसकान सुमुखि |
कलित कपोलों की लाली का
रसमय अलस विहान सुमुखि ||

उस क्षण पड़ा छोड़ना, उसकी
कैसे व्यथा सुनाऊँ मैं |

संग बैठ कर खाना – पीना
और मधुर वे बातें सब |
व्यथित कर रहीं यहाँ अकेले
में रतिहीना रातें अब ||

अतुलनीय व्यामोह तुम्हारा

कैसे धीरज पाऊँ मैं |

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