इधर समर्थन सुमन,
उधर कुछ शूलों की बौछार |
बिदा समय में मिल
पायेगा क्या रीता – उपहार ||
प्रोत्साहित करते है
मुझको ये अनुजी संकल्प,
आशाएं अनुजा – सी
कहतीं खोज न और विकल्प,
आस्था की जननी ने
मुझको दिया सात्विकी नेह,
अग्रज बन कर धैर्य
कह रहा बढ़ तू निस्संदेह,
एक अग्रजा कल्पलता –
सी देती है आशीष,
जनक विवेक
आत्मचिन्तन में बैठे हैं नत शीश,
करता स्वयं अनिश्चय
ही है निश्चय का श्रृंगार |
बिदा समय में मिल
पायेगा क्या रीता – उपहार ||
कितने दिन से सतत चल
रहा मन का अंतर्द्वंद्व,
कैसे हम स्वच्छंद
हमारी गति न अगर स्वच्छंद,
सौ अनुकूल निरर्थक
हैं क्या, एक अगर प्रतिकूल,
कैसे उपवन को बेचेगा
एक अपंगी शूल,
रोक न पाता है
प्रकाश को कभी तिमिर का तीर,
प्रतिद्वंद्वी
ईर्ष्या ने लांघी कब जय की प्राचीर,
नहीं एक बदली ने
रोका है क्षितिजी विस्तार |
बिदा समय में मिल
पायेगा क्या रीता – उपहार ||
मन का नियम प्रणति
आगत की, राही से व्यामोह,
जितना मीठा मिलन,
सनेही उतना प्रात – बिछोह,
जाने वाले के आने की
रहती ही है आश,
शायद फिर आकंठ
तृप्ति से भर जाए भुजपाश,
कहीं सत्य छिपकर
रहता हैं, अलस कल्पना लोक,
जिसके अधरों पर कंपन
हैं, अन्तर में आलोक,
पूछ रहे है अधर –
द्वार पर नत आकुल उद्गार |
बिदा समय में मिल
पायेगा क्या रीता – उपहार ||
नहीं आज का यह जीवन
है, जनम जनम का खेल,
बनी आकुला आत्मा
दूरी, पर निसर्ग है मेल,
संबोधन कोई भी समझो
यहाँ मात्र दो नाम,
एक तुम्हारी प्रीति पुनीता,
एक तुम्हारा धाम,
चंचल मन को उद्वेगों
की नाव ले गयी पार,
मैं निहारता रहा प्रियतम
खड़ी हुई मंझधार,
तृष्णा नीर, विसर्जन
नौका, नाविक पारावार |
बिदा समय में मिल
पायेगा क्या रीता – उपहार ||
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