वाणी का श्रृंगार छिन
गया
और दृष्टि का प्यार
छिन गया |
भावो के कल्पना जगत
का
वह स्वप्निल उपहार
छिन गया ||
प्राण – पपीहा अब भी
प्यासा
मिलनाशा की रटन
लगाये |
पिया –पिया की टेर
सुनाये
नित्य वसंती विरह
मनाये ||
हँसते हुए फूल भाते
हैं
सब बढ़ उनको दुलराते
हैं |
मन की गहन वेदना को
पर
कितने लोग समझ पाते
हैं ||
तुमने लिखा मिलन
गीतों का
मैं तुमको मनुहार
भेज दूँ |
सोच रहा मैं कैसे
तुमको
मन का चित्र उतार
भेज दूँ ||
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