Friday, 30 June 2017

ब्राह्मण समाज से, समस्त ब्राह्मण सभाओं से एवं समस्त भारतीय परंपराओं को मानने वाले ऐसे अन्य जाति के लोगों से जिन्हें ब्राह्मणों से घृणा न हो उनके नाम एक सार्वजनिक अपील।

रायबरेली के घटनाक्रम को आप लोगों ने समाचार पत्रों में विस्तार से पढ़ा है कि किस प्रकार इतने जघन्य अपराध में भी मृतकों के परिजनों के घाव पर मरहम लगाने की जगह उन पर नमक छिड़का जा रहा है। स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे वरिष्ठ नेता बयान दे रहे हैं कि उनकी पिछली आपराधिक पृष्ठभूमि की जांच कराई जाएगी। जिस किसी भी ब्राम्हण या अन्य जाति के संवेदनशील व्यक्ति को इस घटना से कष्ट हो उस से अपील की जाती है कि

1  मृतकों की ब्रह्म भोज की तिथि का पता करके आप सभी को शीघ्र सूचित किया जाएगा तथा उनके अकाउंट नंबर भी पोस्ट के माध्यम से सूचित किए जाएंगे। मनुवादी पार्टी में क्योंकि Zero पैसे का चंदा है तथा यदि कोई स्वेच्छा से भी डोनेशन करना चाहे तो उसको ग्रहण करने या संकलन करने का निषेध है, अतः आपसे निवेदन है कि अपना एक दिन का वेतन या पेंशन या अन्य किसी खेती या व्यापार से औसतन जो 1 दिन की आमदनी होती हो उस को 5 टुकड़ों में बांट कर पांचो खातों में सीधे दानस्वरूप तथा सहयोग स्वरूप डालने का कष्ट करें। किसी भी संगठन के माध्यम से यदि यह धनराशि दे दी जाएगी तो मृतकों के परिजनों को वह नैतिक बल नहीं मिलेगा जो तमाम लोगों के माध्यम से प्राप्त छोटी-छोटी धनराशि से मिलेगा। इससे समाज के उतने हिस्से का नैतिक समर्थन मिलने से उनका आत्मबल मजबूत होगा तथा ब्राम्हण द्रोहियों का मनोबल गिरेगा।

2  जिस दिन उन मृतकों के यहां बाल बनवाने की तारीख होगी उस दिन समस्त ब्राम्हण जनों से तथा उन पर आस्था रखने वाले हिंदू कर्मकांड में विश्वास रखने वाले अन्य सज्जनों से अनुरोध है कि वे उस तारीख को अपना तथा अपने परिवार के समस्त यज्ञोपवित धारियों के सिर के बाल छिलवा दें तथा इस पूरे भारतवर्ष या विदेश में जहां कहीं भी उनके शुभचिंतक हो उनसे ऐसा करने का अनुरोध करें। बाल छिलवाते समय की फोटो और बाद की फोटो अपनी अपनी id से अपनी अपनी पोस्ट पर डाल दें तथा छिले हुए बाल को तीन हिस्सों में बांटकर एक एक हिस्सा क्रमशः प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष भाजपा को कुरियर कर दें तथा यह ज्ञापन भी दें कि या तो इस मामले की CBI  जांच कराई जाए अन्यथा इस मामले की जांच में स्थानीय पुलिस पर विश्वास तभी कायम होगा जब स्वामी प्रसाद मौर्य को बर्खास्त कर इस मामले की जांच की जाए।इसके अलावा मृतकों के परिजनों को एक एक करोड़ रुपये सहायता राशि के रूप में स्वीकृत किया जाए।
 इससे शासन में बैठे हुए तथा 2019 का चुनाव लड़ने वाले समस्त दलों के ब्राम्हण द्रोही मानसिकता वाले नेताओं का हौसला पस्त होगा और आप सब का मनोबल बढ़ेगा क्योंकि आत्मविश्वास से ही मनोबल बढ़ता है।

जो ब्राह्मण विपक्ष के किसी राजनैतिक दल में हों वे अपने बनवाये हुए बाल के चार टुकड़े कर के एक टुकड़ा तथा ज्ञापन अपने पार्टी के राष्ट्रीय हाईकमान को कूरियर कर दें कि वे इस मामले पर अपना रुख तत्काल स्पष्ट करें तथा ये बताएं कि वे घटनास्थल की visit करने तथा परिजनों को सांत्वना देने के लिए कब समय निकाल रहे हैं।
शासक दल अथवा विपक्षी दल के जो लोग अपने हाईकमान से प्राप्त response से संतुष्ट न हों वे अंतरात्मा की आवाज पर उस दल से त्यागपत्र दे दें।


4 ब्रह्म भोज की तारीख को प्रतीकात्मक रुप से अपने यहां एक गोष्ठी बुलाएं तथा सामूहिक भोजन करें एवं भविष्य की रणनीति तय करें।

हम क्या थे,अब क्या हो गए,
और क्या होंगे अभी?
आओ विचारें आज मिलकर,
ये समस्याएं सभी।।
सिद्धान्त अपना पलट देंगे,
डार्विन साहब यहां।
हो क्षुद्रकाय अबोध नर,
बन्दर बनेंगे जब यहां।
“मैथिली शरण गुप्त”
डार्विन साहब ने विकास के सिद्धांत को प्रतिपादित किया था कि किस प्रकार बन्दर विकसित हो कर मनुष्य बना था। अब किस प्रकार से विकसित मनुष्यों को बन्दर बनाने की तैयारी हो रही है- ये हर गावँ में, हर कस्बें में तथा हर चौपाल में ब्रह्मभोज के दिन आयोजित गोष्ठी का एजेंडा होगा।
सिर की टोपी को पैर की जूती बनने से कैसे रोकें इसपर चिंतन मनन किया जाए।
चिंतन मनन में आये बिंदुओं को अपनी अपनी id से समस्त भाग लेने वाले लोग अपनी अपनी post पर डालें। इससे आपकी संकल्प शक्ति का लोगों को एहसास होगा तथा अकेलेपन की भावना दूर होगी और ब्राह्मण द्रोहियों के हौसले पस्त होंगे।
यह अत्यंत कष्ट का विषय है कि सत्ता की तरफ से किसी ने मलहम नहीं लगाया है। उल्टे स्वामी प्रसाद मौर्य जले पर नमक छिड़क रहे हैं।

5 समस्त ब्राह्मण सभाओं से अनुरोध किया जाता है कि वे अपने अपने स्तर से इस कार्यक्रम को सफल बनाने में सहयोग दें अन्यथा परशुराम जयंती पर फरसा चमकाने का उनका नैतिक अधिकार समाप्त हो जाएगा। ध्यान रहे कि मैंने कई विस्तृत लेखों में लिखा है कि जमदग्नि परशुराम के पिता हैं।
जमदग्नि का गला कटने पर ही किसी परशुराम का उदय होता है। अब वह stage रही है।

समस्त बंधुओं से पुनः सहयोग के लिए अपील की जाती है।

Thursday, 29 June 2017

ब्राह्मण समाज के नाम खुला खत। ब्राह्मण सभाओं का खुला आह्वान परशुराम जयंती पर फरसा भांजने वालों की जबान पर ताले पड़े हैं। मनुवादी पार्टी क्या करेगी? सत्ता को खुला अल्टीमेटम

यदि स्वामी प्रसाद मौर्य को बर्खास्त नहीं किया गया तो जहां से खड़े होंगे या जिसके प्रचार में चले जाएंगे उसके विरुद्ध negative voting की जाएगी।
वाहन पलटने से
(1)रोहित शुक्ल, (2)अनूप मिश्र, (3)अंकुश उर्फ भास्कर मिश्र,(4)नरेंद्र शुक्ला उर्फ बच्चा निवासी देवारा PS संग्रामगढ़ जिला प्रतापगढ़ तथा 
(5)बृजेश शुक्ला निवासी सातों जिला कौशांबी वाहन में फंस गए। यह लोग वाहन से निकल कर भागने में असमर्थ हो गए क्योंकि लाठी-डंडों से लैस गांव वाले तब तक वहां पहुंच गए और इन को पीटना तथा ईटों से कूंचना प्रारंभ कर दिया। इसी बीच कुछ लोगों ने पेट्रोल डालकर गाड़ी फूंक दी। लोग आग में जिंदा झोंक दिए गए।

इतने दारुण दृश्य पर भी स्वामी प्रसाद मौर्य को तरस नहीं आया तथा वे मृतकों का आपराधिक इतिहास कुरेदने में लग गए। "श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने आरोप लगाया कि बाहरी लोगों ने आकर गांव का माहौल खराब करने की कोशिश की थी। उन्होंने कहा कि प्रधान पर हमला करने वालों को भीड़ ने जमकर पीटा, जिस कारण ही मौतें हुईं। उन्होंने आरोप लगाया कि मारे गए लोग अपराधी प्रवृत्ति के थे, जिनके बारे में छानबीन कराई जा रही है।"(दैनिक_जागरण)

इतनी नृशंस मानसिकता स्तब्धकारी है। पिछड़ी एकता के नाम पर यादवों के उत्थान की बात करें स्वामी प्रसाद मौर्य- यहां तक तो गनीमत है। किंतु पांच-पांच ब्राह्मणों की नृशंस हत्या के बाद भी हत्याओं के पक्ष में माहौल बनाने वाले को भाजपा किस शान से पचा रही है। अब यह रहस्य समझ में आ रहा है कि किस दबाव में पुलिस हत्यारों के पक्ष में बयान दे रही थी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के पहले पुलिस इसे हत्या का केस मानने से इनकार कर रही थी तथा इसे मात्र एक दुर्घटना घोषित कर रही थी।

ब्राह्मण! तुम लावारिस हो गए हो। 
तुम्हारी लाश पर कोई रोने वाला नहीं- उल्टे तुम्हारी कमजोरियां कोसी जा रही हैं। अगर स्वामी प्रसाद मौर्य जी के कथनानुसार ये अपराधी भी हों तो पुलिस से इनका काउंटर करवा दिए होते अथवा यादवों से मुठभेड़ में ही ये मारे गए होते। किंतु cold blood murder में यह माहौल बनाना कि पांच-पांच लोगों के सामूहिक हत्याकांड को पुलिस के आला अफसर दुर्घटना बताने पर तुले रहे जब तक मीडिया ट्रायल चालू नहीं हुआ तथा पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने पुलिस अफसरों की घिनौनी साजिश को बेनकाब नहीं कर दिया।

ब्राह्मण! तुम लावारिस हो। 
तुमने जिसे वोट दिया वह तुम्हें युधिष्ठिर की तरह जुए में हार गया इसलिए चीर हरण हो रहा है। लावारिस हालत में ब्राह्मण मारे गए, उनका तथा उनके रिश्तेदारों का 90% से अधिक वोट भाजपा को मिला, जिसका मंत्री हत्यारों का प्रवक्ता बनकर मरणोपरांत उनका आपराधिक इतिहास कुरेद रहा है। 
गौरी-गणेश के बारे में विवादास्पद बयान देने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य को वोट देकर जो पाप गौरी-गणेश के प्रति किया है, उसी का स्वाभाविक परिणाम है- हत्या के शिकारों के प्रति मौर्य की संवेदनशून्यता। 
यदि ब्राह्मण समाज ने अपने आराध्य गौरी-गणेश के प्रति अपमानजनक बयान के प्रत्युत्तर में negative voting करके स्वामी प्रसाद मौर्य को वोट न देकर उनके nearest rival (चाहे वह सौ गुना ब्राह्मण द्रोही क्यों न होता),अपना vote transfer कर दिया होता, तो स्वामी प्रसाद मौर्य को दुबारा टिकट देने का दुस्साहस कोई दल न करता। 
यदि ब्राह्मण आज भी यह कड़ा फैसला ले लें कि यदि स्वामी प्रसाद मौर्य को ऐसा संवेदनशून्य बयान देने के उपलक्ष्य में भाजपा मंत्रिमंडल से बर्खास्त नहीं कर देती है तथा पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित नहीं करती है तो जिस सीट से स्वामी प्रसाद मौर्य खड़े होंगे अथवा जिस MLA या MP की सभा में वह मंच पर बैठे होंगे या भाषण देंगे- उस प्रत्याशी को हराने के लिए negative voting करके उनके nearest rival को अपना vote transferकर देगा- उस दिन के बाद सारी पार्टियां स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे लोगों के लिए अपने दरवाजे बंद कर लेंगी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस ब्राह्मणद्रोह को बसपा नहीं पचा पाई, उसे भाजपा गले का हार बनाए हुए है।

हम ब्राह्मण समाज से अपील करते हैं कि वे जिस किसी भी ब्राह्मण सभा के सदस्य हैं, उस पर दबाव बनाएं कि उक्त आशय का प्रस्ताव पारित करें। यदि कोई ब्राह्मण सभा ऐसा करने से avoid करती है, तो ब्राह्मण समाज के लोग उसकी प्राथमिक सदस्यता से त्यागपत्र दे दें तथा उसके बुलाए गए सम्मेलनों में भागीदारी न करें।

ब्राम्हण! तुम्हारे सारे रास्ते बंद हो चुके हैं।कहां जाओगे?
"पूर्व मंत्री व सपा विधायक मनोज पांडे ने आरोप लगाया कि "सत्ता में बैठे कुछ लोग अपराधियों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। पुलिस दबाव में काम कर रही है और घटना को गलत तरीके से प्रचारित किया जा रहा है।" प्रमुख सचिव (गृह) और अन्य शीर्ष अधिकारियों से मिलने की बात कही।

क्या होगा इस विधवा विलाप से?
जब आप मंत्री थे, तब आपकी सरकार में क्या आपका मान-सम्मान सुरक्षित था?
जब चाहा, अखिलेश ने अनाथालय में भेज दिया। फिर दया आई, निकाल लिया। आज आप की सरकार होती, तो क्या आप बोल पाते?
आपके राज्य में MBBS की छात्रा से जब बरेली में एक दलित बालक ने विवाह के लिए प्रस्ताव रखा, तो उसने कहा कि इसका फैसला उसके पिता लेंगे। जब वह लड़की के पिता से मिलने आया तो उन्होंने कहा कि वह अपनी लड़की किसी गैर ब्राह्मण के हाथों नहीं सौंपेंगे। उस दलित लड़के ने आत्महत्या कर ली और आपकी सरकार ने उस ब्राह्मण लड़की तथा उसके पूरे परिवार को अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण अधिनियम तथा 306 का अभियुक्त बना दिया। 
किसी दलित की हमबिस्तर बनने से इंकार करना भी आप की सरकार में जुर्म था। पूरी FIR में कहीं भी Honour killing के pattern पर honour insult का भी आरोप नहीं है। यदि सारे आरोप सत्य भी मान लिए जाएं तो कहीं पर भी यह आरोप नहीं था कि लड़की वाले कभी लड़के वाले के दरवाजे पर अपमानित करने या taunt करने गए। अपने दरवाजे पर बैठकर अपनी लड़की के भावी जीवन-साथी पर निर्णय लेने का अधिकार सपा के राज्य में नहीं रह गया था। अनायास आपकी पार्टी इस दुर्गति को नहीं प्राप्त हुई। 
आप जरा अन्य ब्राह्मणों की तुलना में मुखर रहे जिससे लोग कहते हैं कि मनोज पाण्डेय फल तो नहीं दे पाते थे, किंतु छाया देने की कोशिश अवश्य करते थे। 
आप की पार्टी में सम्मान था जनेश्वर मिश्र का, जो ब्राम्हण कुल के इतने बड़े गौरव थे कि डा लोहिया के मंच पर "जाति तोड़ो जनेऊ तोड़ो" आंदोलन में भाग लेकर जनेऊ तोड़कर कुचल देते थे। शंबूक के हक की लड़ाई का दावा करने वाले लोहिया सदा वशिष्ठ को गालियां देते नहीं थकते थे तथा गर्व से कहते थे "हमें सीता के आंसुओं तथा शंबूक के खून का बदला लेना है।"

यह तो दलित की बेटी का तेजप्रताप था कि आप की पार्टी स्टेट गेस्ट हाउस कांड के प्रायश्चित के रूप में आपको पहचानने लगी तथा परशुराम जयंती मनाने और हाथों में फरसा भांजने की छूट आपको मिली। इसके बावजूद आप तथा पवन पाण्डेय जैसे लोग कभी झटके खाए तो कभी शरण पाए- ब्रह्माशंकर त्रिपाठी जैसे लोग रोज सशंकित रहते थे कि कब हाशिए पर चले जाएंगे तथा अशोक वाजपेई जैसे प्रखर ज्ञानी को राजनीति के गटर में बहने के लिए निर्ममता पूर्वक छोड़ दिया गया। 
मुसलमानों को छोड़कर सपा में कोई वर्ग ऐसा नहीं है जो यादवों से आंख में आंख मिलाकर बात कर सके। कन्नौज में यादवों तथा मुसलमानों में लड़ाई हुई तथा यादवों को न्यायोचित सहायता भी नहीं मिल पाई तब जाकर यादवों को पहली बार एहसास हुआ कि MY(माई) समीकरण चल रहा है तथा उत्तर प्रदेश सरकार उनकी खानदानी रियासत नहीं है बल्कि सत्ता यादवों के हाथ में होने के कारण मुसलमानों की वह स्थिति है जो स्थिति ब्राह्मणों की रघुवंशियों के राज्य में होती थी। 
मायावती के राज्य से भी बदतर स्थिति सपा में रही। मायावती क्रोध में आने पर "तिलक तराजू कलम तलवार" को चार जूते मारती किंतु किसी यादव की यह औकात न होती कि वह किसी पंडित को चार लाठी मारे। 
ब्राह्मण को इतना संतोष होता की वह दोयम दर्जे का नागरिक है- वह दलितों का गुलाम भले हो लेकिन बाकी कोई उसे दबाने की स्थिति में नहीं है। भाजपा में अराजकता तथा सपा में दुरूपेक्षा के कारण ब्राह्मण दोयम दर्जे का भी नागरिक नहीं रह गया। क्षत्रियों तक का सहारनपुर में क्या हुआ, सबको पता है। संघ परिवार की अलग विवशता है- रायबरेली प्रतापगढ़ तथा सहारनपुर के पिछड़े तथा दलित यदि मुसलमान हो गए तो क्या होगा?
मंगलवार को कांग्रेस विधायक आराधना मिश्रा मोना ने मारे गए लोगों के परिजनों से मिल संवेदना व्यक्त की। उन्होंने आरोप लगाया कि पूरी घटना में पुलिस की भूमिका संदिग्ध रही। इसलिए घटना को तोड़ मरोड़कर भ्रामक स्थिति पैदा करने की कोशिश की लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट में सच्चाई सामने आ गई। उन्होंने घटना की न्यायिक जांच कराने की मांग करते हुए दोषियों पर सख्त कार्यवाही करने की बात कही। उन्होंने कहा कि इस बारे में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलकर कार्यवाही की मांग की जाएगी।"( दैनिक_जागरण)
धन्य हो मोना कम-से-कम कांग्रेस में आपको ब्राह्मणों की वर्तमान दयनीय स्थिति का ज्ञान है। आपको ज्ञान है कि कांग्रेस में पप्पू बैठा है, जो एक-दो दलित के मारे जाने पर भी गांव में पहुंचकर तथा परिजनों से लिपटकर फूट-फूट कर रो रहा होता किंतु पांच-पांच ब्राह्मणों की नृशंस हत्या के बाद भी घटनास्थल पर जाना तो दूर, उसकी एक tweet तक twitter पर नहीं दिखी। अब कांग्रेस में वफादारी का कोई मूल्य नहीं रहा- इतने साल तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सड़ी लाश को सहेजने वाले अपने पिता की विरासत संभालने के बावजूद आपको नेता विधायक दल तक नहीं बनाया गया। इंदिरा गांधी नहीं रहीं। अब राहुल के पास किसी ब्राह्मण के दरवाजे पर जाने का समय नहीं है। किसी शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का दावेदार घोषित कर तथा बाद में अखिलेश से साझीदारी कर उन्हें कूड़ेदान में डाल देने से ब्राह्मणों के प्रति फर्ज अदायगी का नाटक पूरा हो गया। इसलिए अपने हद में रहने की ब्राह्मण परंपरा का आपने निर्वाह किया तथा किसी आंदोलन आदि की धमकी नहीं दी। पिता से कह कर एक CBI जांच के लिए writ भी करवा दें तो समाज आपका आभारी होगा।
रही बात मनुवादी पार्टी की तो हमारा सिद्धांत है कि हम
1 न तो सड़क पर संघर्ष करते हैं
2न हम सशस्त्र संघर्ष करते हैं और
3न ही हिंसक संघर्ष
4इतना ही नहीं हम कोई ज्ञापन तक किसी अधिकारी या नेता को नहीं भेजते।
आवश्यकता पर हम समय-समय पर मनुवादी आदेश/ अल्टीमेटम संबंधित पक्ष को निर्गत करते हैं तथा आगे की स्थिति स्वत: स्पष्ट है-

"विप्ररोष पावक सों जरई"

हम जातिगत विद्वेष नहीं चाहते, हम न्याय चाहते हैं। 
"गौरी-गणेश" का मजाक उड़ाने वालों के बीच से स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे लोग आए हैं तथा इन पर यदि कड़ी लगाम नहीं लगाई गई तो भाजपा तथा संघ परिवार का बनाया हुआ सामाजिक सामंजस्य का ताना-बाना नष्ट हो जाएगा। हमारा कहना है कि इस प्रकरण की जांच मौके पर जाकर श्री केशव मौर्य उपमुख्यमंत्री ही कर लें- First hand information. हम कभी नहीं कहते कि कोई गैर पिछड़ा जांच करे। मेरा कहना है कि ऐसा कोई पिछड़ा ही देख ले जो पूर्वाग्रहग्रस्त न हो तथा संघ के संस्कारों में पाला गया हो- कम-से-कम वह अपना तथा अपनी पार्टी का भला चाहेगा। केशव मौर्य जी विश्व हिंदू परिषद के संस्कारों में पले हैं- एक मृतक उनकी कर्मभूमि कौशांबी का है। वे स्वयं बताएं कि यदि मृतकों का आपराधिक इतिहास रहा भी हो, तो क्या सामूहिक नृशंस हत्याकांड औचित्यपूर्ण है?
क्या स्वामी प्रसाद मौर्य का यह बयान पर्याप्त नहीं होता कि "सभी पहलुओं की जांच करके प्रशासन निष्पक्ष कार्यवाही करेगा इस आशय के निर्देश निर्गत कर दिए गए हैं।" क्या स्वामी प्रसाद मौर्य जी मृतकों पर भी गुण्डा एक्ट/ Gangster Act लगवाना चाहते हैं?
Criminal justice की सुस्थापित मान्यता है कि आपराधिक दायित्व मृत्यु के साथ समाप्त हो जाते हैं। मगर हमारे देश में मरे हुए राजीव गांधी पर भी chargesheet प्रेषित की जा चुकी है, जो स्वयं में उपहासास्पद है। Civil liability तो death के बाद भी persist करती है, किंतु criminal liability कैसे devolve करायेंगें- इस पर प्रकाश डालें।
हमें विश्वास है कि यदि केशव मौर्य मौके पर चले जाएं तो वह अन्याय नहीं कराएंगे। यदि वह ऐसा नहीं करते हैं तो मनुवादी पार्टी उनके उपचुनाव में दरवाजे-दरवाजे उन पांचो मृतकों के परिजनों को जन जागरण के लिए भेजेगी जो अपने मृतक परिजनों के लिए अपने आत्मीय शुभचिंतकों से न्याय मांगेंगे। हम किसी DM को ज्ञापन नहीं देते- अन्याय जिस राजा के द्वारा होता है उसको चुनाव में उसकी औकात बता देते हैं। अभी भी मौका है। संघ परिवार भूल जाए कि मुसलमान होना केवल पिछड़ों या दलितों को आता है। अभी जो DSP कश्मीर में मारे गये हैं उनके नाम के आगे पंडित लगा है। उत्पीड़न की लक्ष्मण रेखा न लांघे कोई। 
संघ परिवार यह सुनिश्चित करें कि विधवाओ के घाव पर किसी को मरहम लगाने का समय न हो, तो कम से कम नमक न छिड़के।

Wednesday, 28 June 2017

राहुल को सर्वसम्मति से पार्टी के भीतर तथा बाहर पप्पू क्यों कहा जाता है?

मनुवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की हैसियत से मैंने एक लेख श्रृंखला चालू की थी- "एतद्देश प्रसूतस्य।"
ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ।अतः ब्राह्मणसुलभ वाचालता हमें विरासत में मिली है,हमारे DNA में है। इस श्रृंखला में मनुस्मृति के इस निर्देश की याद मैंने विभिन्न पार्टियों के राजकुमारों- राहुल,अखिलेश,तेजस्वी आदि को दिलाई थी-

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:।।

अर्थात इस देश में उत्पन्न अग्रजन्मा के संसर्ग में आकर अपने अपने चरित्र(role/assignment) की शिक्षा ग्रहण करें।
इसमें राहुल को बार-बार समझाया गया कि दिल्ली के राजा को योग्य सामंत नहीं, बल्कि नीच प्रकृति, पापी मन वाले तथा गंदे सामंत पालने चाहिए, जो भरसक 'मजबूर' हों तथा 'मजबूत' तो कतई न हों। इसी तरह सामंतों को भरसक मजबूर सम्राट पाने का प्रयास करना चाहिए, जिसकी लाचारगी तथा बेचारेपन के भाव को देखकर दुनिया हंसे। योग्य सम्राट सामंतों का तथा योग्य सामंत सम्राटों का पतन करते हैं। किंतु राहुल ने सुनकर अनसुना कर दिया। पहली गलती तो तब की जब मनमोहन सिंह को एक तरह से अपमानित करते हुए लालू की रक्षा के लिए बनाए जा रहे Act को फाड़ कर फेंक दिया। राजनीति नैतिकता के सिद्धांतों पर नहीं चलती है।
जेहिं अघ हनेउ व्याध इव बाली।
पुनि सुकण्ठ सोई कीन्ह कुचाली।।
सोइ करतूत विभीषण केरी।
सपनेहुँ तेहि श्रीराम न हेरी।।
                                      -तुलसीदास
जिस पाप के लिए राम ने बालि को व्याध की तरह मारा, वही कुकर्म सुग्रीव ने किया तथा वही करतूत विभीषण ने, किंतु सुग्रीव तथा विभीषण के कुकर्मों पर राम ने स्वप्न में भी दृष्टि नहीं डाली।
अगर सुग्रीव तथा विभीषण ही मार डाले जाएंगे, तो रावण-वध कैसे होगा?
लालू गांधी परिवार का सुग्रीव और भक्त- पापी लेकिन भक्त।
राहुल भूल गए जब उनकी पार्टी के संगमा, पवार तथा तारिक अनवर आदि भी सोनिया को विदेशी कहकर हुलकार(hoot) रहे थे, उस समय लालू ने अशोक की दादी तथा चंद्रगुप्त मौर्य की पत्नी कार्नेलिया से तुलना करते हुए उन्हें भारत की बहू घोषित किया तथा सीना तान कर खड़ा हो गया।क्यों? इसलिए कि चारों ओर से घिरी सोनिया(cornered) जब कभी सत्ता में आएंगी, तो उनके पापों को धोएंगी।
होते न मुल्जिम न होते तुम हाकिम,
औ सूनी ही होती अदालत तुम्हारी।
राजनीति में Reciprocal policy चलती है। नेहरू ने सैद्धांतिक राजनीति की, किंतु कृष्णा मेनन जैसे चेले चमचों को भी पाला-पोसा। इंदिरा जी ने तो सांपों को गले में लपेटकर राजनीति में दो-तिहाई बहुमत अर्जित किया। राजीव ने राजनीति में Mr. Clean बनने की कोशिश की तो C.B.I.द्वारा Chargesheeted होने का गौरव प्राप्त किया।

"किस्सा कुर्सी का" की जांच में CBI के अधिकारियों के बच्चे भले Accident का शिकार हो गए हों किंतु chargesheet नहीं लग पाई। सत्ता राजीव के हाथों में थी-Right to information तथा Computer में character roll की feeding कराकर राजीव ने subservient, pliable तथा servile officers की जगह computer से छांटकर अच्छे Service records वालों को महत्वपूर्ण जगहों पर बिठाना शुरू किया। Committed bureaucracy का अता-पता नहीं रहा। अपनी और चेलों की गतिविधियां पहले जैसी रहीं तथा Mr. Clean बनने के चक्कर में गोपनीयता का पर्दा उठा दिया- सबकुछ नंगा हो गया। यही वी.पी. सिंह इंदिरा जी के जमाने में एक कोने में दुबके रहते थे किंतु राजीव के जमाने में बोफोर्स के उद्घाटक बने। इंदिरा युग में यदि वी.पी. सिंह हलचल करते तो इंदिरा जी तत्काल CBI को जांच का आदेश देती तथा कोई Commited D.G. C.B.I. वी.पी. सिंह को ही जेल भेज देता तथा कोई माननीय A.N. Ray सरीखा महान व्यक्तित्व गुण-दोष पर समुचित विचार करने के बाद उन्हें convict भी कर देता तथा unwept, unhonoured and unsung वे जेल की सीखचों में ही विराजते। राजीव नमाजी तो हो न सके किंतु मस्जिद बना ली। मंदिर का निर्माण तो कर डाला, पर पूजन-अर्चन में मन न लगा। Committed bureaucracy तार-तार हो गई किंतु पारदर्शी व्यवस्था/प्रणाली (transparent system) का कार्यान्वयन न हो सका, इस पाखंड का घड़ा बोफ़ोर्स के रूप में फूटा।
राहुल के लिए "एतद्देशप्रसुतस्य" coaching में मैंने स्पष्ट संदेश दिया था कि

1 सबसे पहले अपने सामंतों पर लगाम लगाओ तथा उनके साथ 'KITA' Approach (kick in the anus) का प्रयोग करो। यह असंसदीय शब्द नहीं है बल्कि IAS की मसूरी Academy में Guest Lecturers ने Management की विधा के रुप में इसकी व्याख्या की थी। IAS, IPS , IAS Allied etc की सारी गंदगी की यही रक्षा करता है क्योंकि system के भीतर से गंदगी की तुलना में भी 1%आवाज मुखर नहीं होती है। कोई वरिष्ठ अधिकारी अपने अधीनस्थ के बारे में केवल इतना ही लिख दे कि "He is a good officer" तो वह पूर्ण रुप से बर्बाद हो जाएगा तथा "He is a very good officer" लिखने पर आंशिक रूप से। कितने ही objective parameters बना लिए जाएं किन्तु आखिरकार Annual Confidential Remarks का मूल्यांकन होता तो subjective ही है।
Outstanding=5 marks
Very good=3 marks
Good=2 marks
Satisfactory=1 mark
इस मानक पर Very good वाला ध्वस्त हो जाता है तथा Good वाला तो जड़ से बर्बाद हो जाता है। इसी कारण से वरिष्ठ अधिकारियों के अनाचार एवं दबाव को सहने को कनिष्ठ अधिकारी मजबूर हो जाते हैं।
इसी प्रकार जिन पार्टियों में हाईकमान सारे पुचकार तथा दुलार के बावजूद समय-समय पर KITA Approach लगाता रहता है, उन पार्टियों में अनुशासन बना रहता है वरना शरीफों का मुंह कुत्ता चाटता है। ऐसे ही सड़क छाप लोग जिनकी औकात अपनी सीट जीतने की नहीं वे राहुल को रास्ता चलना सिखा रहे हैं। वे बयान दे रहे हैं कि राहुल को राजनीति करनी नहीं आती।
काश अगर प्रियंका उत्तराधिकारी हुई होती तो इंदिरा गांधी का DNA उसमें देखकर सामंत कांप रहे होते। मुंह से झाग निकलती, आवाज नहीं आती। जोर से चीखते-
जो तू कह दे है वही सत्य,
जो तू कह दे है वही न्याय।
जिससे तेरा मतभेद हुआ,
वह राजनीति में अंतराय।।

2 एहसानफरामोशी राजनीति में आगे बढ़ने में बाधक है। मुलायम सिंह इसलिए राजनीति में टिक गए कि वह एहसानों को ढोते थे। और यही न करने से अखिलेश राजनीति में उखड़ गए।
अगर आप इतने पवित्रात्मा हैं तो किसी गंदे आदमी का साथ मत कीजिए और यदि कीजिए तो निभाने का सामर्थ्य रखिए। अखंड प्रताप सिंह तथा नीरा यादव जैसों को भी संकट के समय मुलायम ने नहीं छोड़ा। जब आप लालू यादव को पार्टनर बना ही रहे हैं तो तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करने में क्या आपत्ति?
"नीचे तेजस्वी ऊपर राहुल" के नारे के साथ यदि राहुल बिहार के चुनाव में उतरे होते, तो जितनी सीटें कांग्रेस के लिए छूटी थीं, उसकी दूनी से अधिक सीटें कांग्रेस के लिए छूट जातीं। बहुत ही अधिक जूनियर पार्टनर बनकर चुनाव लड़ने से कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा बिहार में छिन्न-भिन्न हो गया। यदि कांग्रेस ने नीतीश कुमार पर भाजपा की संगत का आरोप लगाकर लालू का दामन थाम लिया होता तो नितीश का सर्वनाश हो गया होता। लालू सोनिया माता को बहूरानी बनाकर आरती उतार रहा होता तथा तेजस्वी चीख रहे होते कि अखिल भारतीय स्तर पर राहुल के अलावा उन्हें किसी का नाम स्वीकार्य नहीं है।
3 राहुल को यह मौलिक ज्ञान नहीं है कि राजनीति में zero ही hero बनता है। राहुल यू.पी. तथा बिहार में भले जीरो हों किंतु जिस नेता के बगल में बैठ जाएं उसकी औकात दस गुनी कर सकते हैं। इसको राहुल का विरोधी भी मानेगा कि केंद्रीय राजनीति में कांग्रेस भाजपा विरोधी मोर्चे में सबसे बड़ा दल है। कल्पना कीजिए कि राहुल यदि नीतीश का बहिष्कार कर दिए होते तो नीतीश या तो अकेले लड़ते अन्यथा उनको भाजपा के साथ मिलकर लड़ना पड़ता। भाजपा का साथ पकड़ने पर नीतीश मांझी या पासवान बन जाते तथा यदि सरकार बन भी जाती तो वे केंद्र में मंत्री होते तथा प्रदेश की राजनीति में अप्रासंगिक हो जाते। अकेले लड़ने पर मुसलमान उन्हें चिमटे से न छूता।लिहाजा Two party system बन जाता तथा लालू को झक मारकर इंदिरा जयललिता फार्मूला स्वीकार करना पड़ता जिसमें तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में इंदिरा जी एक तिहाई सीटें लड़ती थी (दो तिहाई जयललिता) तथा लोकसभा चुनाव में कांग्रेस दो तिहाई सीटें (एक तिहाई जयललिता)। बिहार में कांग्रेस का सम्मानजनक उदय हो जाता।
इसी प्रकार यू.पी. में यदि कांग्रेस दृढ़तापूर्वक सपा तथा बसपा में से किसी एक का बहिष्कार कर देती तथा घोषणा कर देती कि केंद्र में सरकार बने या ना बने वह उस पार्टी को न समर्थन देगी और न लेगी। जिस permutation तथा combination में वह बहिष्कृत पार्टी शामिल की जाएगी उसे भी वह समर्थन न देगी और न लेगी तो मुसलमान के सामने उस बहिष्कृत पार्टी का बहिष्कार करने के अलावा कोई विकल्प न बचता। बिना कांग्रेस के किसी गैर भाजपा विकल्प की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इतने दिन के शिवराज शासन के बाद भी कांग्रेस की मध्यप्रदेश में वह दुर्दशा नहीं है जो उत्तर प्रदेश में है। सपा तथा बसपा में से एक के समापन के बाद इंदिरा जयललिता फार्मूला दूसरी को स्वीकार करना पड़ता।
4 राहुल को किसी आदमी की औकात नहीं पता। इंदिरा के दरबार में धवन या राव को जो हैसियत हासिल थी वह अर्जित करने में किसी को राहुल के दरबार में सफलता नहीं मिली। हर यादव अखिलेश यादव नहीं हो सकता। हर दलितकन्या मायावती नहीं हो सकती। राहुल गांधी सब धान को 22पसेरी तौलते हैं। वह नहीं जानते कि IAS में, IPS में, शरीफों में, गुंडों में, पूंजीपतियों में, पान की दुकान पर लफंगई करने वालों में, किसकी क्या हैसियत है और वह कितने दूर तक उनके साथ चल सकता है। जनाधारविहीन पानी के बुलबुले उनको घेरे रहते हैं। जिसका कुछ भी वजूद है, वह किसी के लिए प्राण दे सकता है किंतु अवसरवादी चेलों चमचों की तरह पेट के बल रेंग नहीं सकता। राजनीति में कंप्यूटर से खेल खेलने वाले पप्पू नहीं तो और क्या हैं?
मनमोहन सिंह ने Central Deputation की ऐसी व्यवस्था बना दी कि मेरे बैच के15 में से 2-3अधिकारियों का ही empanelment हो पाया। शैलजा कांत मिश्र जैसे जीवन भर Outstanding remark पाने वाले अधिकारी तक का empanelment नहीं हुआ। यही हाल हर बैच का था। यही हाल IAS का था। जब हर बैच के90% अधिकारियों को मालूम हो गया कि उन्हें केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर मनमोहन सिंह लेंगे नहीं तथा राज्य में उनकी सरकार नहीं है तो कोई IAS/IPS किसी भी कांग्रेस नेता को भाव क्यों दे?
लिहाजा कांग्रेसी नेता इस लायक नहीं बचे कि जनता के बीच जाएं। जनता के बीच जाने पर जनता अपने काम बताती। 1 Central School के teacherतक का transfer कपिल सिब्बल किसी कांग्रेसी के कहने पर नहीं करते थे। चिदंबरम से किसी CRPF, BSF etc के एक सिपाही तक का transfer कराने की औकात किसी की नहीं थी। अधिकारी वे लिए गए थे जो नेताओं की सिफारिश पर नहीं आए, बल्कि Computerसे ACR देखकर चुने गए थे। ACR उनके अधिक अच्छे थे जोBJP/BSP/SP के नजदीकी थे क्योंकि1989 के बाद कभी कांग्रेस सरकार में थी नहीं। कांग्रेसी नेताओं से दिल्ली की नौकरशाही न पैसा लेती थी, न काम करती थी। विपक्षी नेता उन अफसरों के माध्यम से जनता का काम करा लेते थे, जिनके हाथ से वे पैसा माध्यम/बिचौलिया बन कर ले चुके थे/दिला चुके थे। जब छत्तीसगढ़ के CRPF के सिपाही का transfer या Assam से Central School के teacher का transfer दिल्ली में कांग्रेसी राज होने के बावजूद SP/BSP/BJP के नेता कराते थे तो मनहूस सूरत लिए हुए किसी कांग्रेसी नेता को किसी गांव में अपने दरवाजे पर कौन बैठने देता?
राहुल को बार-बार यह शिकायत होती थी कि कांग्रेसी AC तथा PEPSI की राजनीति करते हैं तथा जनसाधारण के बीच नहीं जाते। किंतु पप्पू को यह नहीं पता था कि कांग्रेसी नेता जनता को मुंह दिखाने लायक नहीं रह गए थे क्योंकि वे Result deliver करने में अक्षम थे।
साइकिल का एक चक्का चलता है तो दूसरे को चलना पड़ता है। जब हिरण्याक्ष टट्टी के महल में बैठ गया तो उससे निपटने के लिए विष्णु को सूअर बनना पड़ा (शूकर अवतार)।
अनिल यादव के समानांतर कोई अनिल शुक्ला, अनिल मौर्या या अनिल राम की राहुल के हाथों केंद्रीय लोक सेवा आयोग में नियुक्ति न हो सकी तथा राहुल का वोट बैंक अनाथ हो गया। उत्तर प्रदेश में जितने सिपाही/दरोगा भर्ती होते हैं उससे अधिक केंद्र में, किंतु हाईकमान की लिस्ट का जो जयकारा मुलायम सिंह के राज्य में होता था वह मनमोहन सिंह के राज्य में नहीं। वेश्या से गाली गलौज कोई पतिव्रता नहीं कर पाएगी। Foul game खेलने वालों के आगे fair game खेलने वाले वैसे ही नहीं टिक पाते जैसे शकुनि के आगे युधिष्ठिर नहीं टिक पाए थे।
लोहिया तथा नेहरू ताल ठोंक सकते थे- अंबेडकर और नेहरू जोर-आजमाइश कर सकते थे। दोनों पीतांबरधारी थे। किंतु Mr.Clean बनने की कोशिश वाले राजीव दो-तिहाई बहुमत की पूंजी वरासत में पाने के बावजूद मुलायम, माया, लालू, पासवान के आगे नहीं टिक पाए तो साझे की दुकान की Managership करने वाले पप्पू और उनकी मां सोनिया के मुनीम मनमोहन सिंह की क्या बिसात जो सामने ताल ठोंक सकें।
"Poison kills poison."
Committed bureaucracy तथा Committed oligarchy पैदा करने की प्रियंका की कोशिशों को नाकाम होना ही था। कांग्रेस में जिसने वफादारी की, वह भुगत गया। संजय सिंह और अमिता सिंह ने जितनी बार दलबदल किया, उन्हें उतने ही सम्मान से वापिस लिया गया। हेमवती नंदन बहुगुणा, उनकी बेटी तथा परिवार को कांग्रेस छोड़ने का इनाम कांग्रेस में बारम्बार मिला। प्रमोद तिवारी, कमलापति त्रिपाठी का परिवार, सत्यदेव त्रिपाठी जैसे लोग पार्टी न छोड़ने की सजा भुगतते रहे। अनुग्रह नारायण सिंह तथा अरुण कुमार सिंह "मुन्ना" का सम्मान होते कभी नहीं दिखा। इतने घनघोर पप्पू का भगवान ही मालिक है।
आज भी बिहार में अगर राहुल गांधी नीतीश कुमार से सांप्रदायिक तत्वों को समर्थन देने का आरोप लगाकर अपना समर्थन वापस ले लें तो सरकार गिरे या न गिरे ऐसा माहौल तो बन ही जाएगा कि लालू और तेजस्वी को समर्थन वापस लेना पड़ेगा अन्यथा मुसलमानों के दरबार में वे हाजिर होने लायक नहीं बचेंगे। नीतीश कुमार को उस हालत में या तो विधानसभा भंग करनी पड़ेगी अथवा भाजपा का दामन थाम कर सरकार चलानी पड़ेगी।राजनीति में किसी को समझाने से किसी के समझ में नहीं आता।
जब सिर पर नंगी तलवार लटकती है तब राजा चौकन्ना रहता है। आज अगर राहुल की जगह प्रियंका होती तो मीरा कुमार की जगह कोविंद को समर्थन देने की हिमाकत नीतीश तभी करते जब वे मानसिक रूप से अपने को राम विलास पासवान बनाने को तैयार हो जाते। लेकिन नीतीश तनावमुक्त हैं क्योंकि नीतीश जानते हैं कि कांग्रेस में एक पप्पू बैठा है जो इंदिरा जी की तरह उचित समय पर उचित निर्णय नहीं ले पाएगा तथा चौतरफा घिरे लालू अकेले कोई बड़ा कदम तत्काल नहीं उठा सकते। राजकुमारों को अगला पाठ फिर कभी।

Friday, 23 June 2017

मनुवादी पार्टी मीरा कुमार को क्यों नैतिक समर्थन दे रही है?

मीरा कुमार जगजीवन राम की बेटी हैं।
मनुवादी पार्टी राष्ट्रपति चुनाव में उन्हें क्यों नैतिक समर्थन दे रही है?- इसका एक विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत है। निम्न कारण हैं
1_जगजीवन राम कांग्रेस सरकार में मंत्री थे। मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी होती है। किसी एक के भी सही या गलत निर्णय के लिए पूरी कैबिनेट जिम्मेदार है। हर पाप और पुण्य के लिए हर कैबिनेट सदस्य सहभागी होता है। जगजीवन राम जब मंत्री थे, तब बैकलॉग पैदा हुआ।
बैकलॉग है क्या?
कांग्रेस ने कागज में रिजर्वेशन दे दिया, लेकिन व्यवहार में लागू नहीं किया। दलितों के लिए आरक्षित पद भरे नहीं गए। कारण यह बताया गया कि "हरिजनों" (कांग्रेसी राज्य में दलितों को "हरिजन" पुकारा जाता था) में सुयोग्य अभ्यर्थी नहीं हैं। इस पर सहमति के स्वर में जगजीवन राम तथा महावीर प्रसाद जैसे लोगों ने हाथ उठाया। मायावती ने इस मुद्दे को भुनाया। मायावती के पहले जितने दलित नेता थे उन्होंने दलितों की एकता का प्रयास किया। मायावती ने दलितों का महाभारत किया। मायावती ने कहा कि एक बार तर्क के लिए मान भी लिया जाए कि पर्याप्त इंजीनियर एवं डॉक्टर नहीं उपलब्ध हैं (यद्यपि यह भी गलतबयानी है) लेकिन चपरासी (जिसकी अर्हता निरक्षर है) तथा क्लर्क (जिसकी अर्हता तब हाईस्कूल थी) उसमें बैकलॉग क्यों है?जितनी रिक्तियां हैं, उससे अधिक तो बेरोजगार दफ्तरों में रजिस्टर्ड हैं। निरक्षर तो हर गांव में उपलब्ध हैं।
धीरे-धीरे मायावती जब दलितों को समझा पायी तो जिस गांधी को दलित पूजता था उस गांधी को जब मायावती ने "शैतान की औलाद" घोषित किया तो दलितों ने उसे हाथों-हाथ लिया। जिन दलितों की रिक्तियां नहीं भरी गई उसे बैकलॉग कहते हैं। इसके विपरीत ब्राह्मण समाज में एक महापुरुष उत्पन्न हुए अटल बिहारी बाजपेई जिन्होंने इस बैकलाग को भरने के लिए संविधान में संशोधन कर दिया, जिसे माननीय उच्चतम न्यायालय ने आगे चलकर असंवैधानिक घोषित कर दिया। मंडल कमीशन लागू करने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह को "क्षत्रियकुलकलंक" की मान्यता दी किंतु "बाभन बछिया" आज भी अटलजी के प्रति इतना क्रूर नहीं हो पाया तथा भले ही उसने "फीलगुड" के बावजूद अटल जी को जड़ से नकार दिया तथा उनके अलावा मुरली मनोहर जोशी, श्यामबिहारी मिश्र समेत पूरे प्रदेश में कसम खाने को एक भी ब्राह्मण को लोकसभा का मुंह नहीं देखने दिया किंतु अपने इस बेटे का नाम सुनकर ब्राह्मण समाज का चेहरा मुरझा जाता है किंतु आज तक मैंने किसी के मुंह से "ब्राह्मणकुल कलंक" जैसा कठोर शब्द नहीं सुना। उस काले कानून के पास होने पर मनुवादी पार्टी की स्थापना हुई थी तथा यह निर्णय हुआ था कि चाहे सपा जीते या बसपा किंतु किसी भी कीमत पर किसी आरक्षण समर्थक सवर्ण को लोकसभा में नहीं पहुंचने देंगे। अटल जी का स्थाई वनवास हो गया।
इस काले कानून को मोदी जी ने पुनः लागू करने की नीतिगत घोषणा की है तथा यह प्रक्रिया में है। मीरा कुमार के पिता के इस सौजन्य के उपलक्ष्य में मनुवादी पार्टी उनका आभार प्रकट करती है तथा अन्य विकल्प न होने पर कम-से-कम अटल तथा मोदी के बैकलॉग के विरोध में मीरा कुमार को नैतिक समर्थन देती है चाहे वे और उनकी पार्टी इसका प्रतिदान करें अथवा नहीं। लाखों लोग जो कि बैकलॉग न होने पर नौकरी न पाए होते वे कांग्रेस के सौजन्य से आरक्षण के लागू होने पर भी आरक्षित सीटों पर नौकरी पा गए तथा उनके वेतन से एक पीढ़ी का पालन पोषण हुआ।

2_कांग्रेस ने Civil Rights Act बनाया इसके अधिकतर प्रावधान जमानती थे तथा कचहरी में खड़े-खड़े जमानत होती थी। किसी अनुसूचित जाति के आदमी को यदि जातिगत आधार पर अपमानित या प्रताड़ित किया जाता तब यह Act लागू होता। अस्पृश्यता को रोकने के लिए यह कानून उचित था। जगजीवन राम उस सरकार में मंत्री थे। बाद में इसे SC/ST Act Prevention of Atrocities Act का रूप देकर और कठोर बना दिया गया। किंतु 2016 में तो मोदी ने सारी हदें पार करते हुए इसे हजार गुना कड़ा बना दिया तथा सवर्णों/ पिछड़ों की महिलाओं की इज्जत को संवेदनशील नहीं माना। इस 2016 के Act के अनुसार यदि किसी दलित महिला को देख कोई मुस्कुरा दे या कनखियों से ताक दे(gestures) या घूर कर देख ले, तो यह घोर संवेदनशील अपराध माना जाएगा तथा इसकी विवेचना 2 माह में तथा Trial(परीक्षण) दो माह में स्पेशल कोर्ट गठित कर न्यायालय का निर्णय सुना दिया जाएगा। यह कानून हमें सीधे दोयम दर्जे का नागरिक बना दे रहा है तथा एक प्रकार का बलात्कार में आरक्षण है। अब कोई दुराचारी अगर बलात्कार के mood में हुआ तो पहले पता कर लेगा कि अगर लड़की सवर्ण या पिछड़ी हो तो उसे बलात्कार का शिकार बनाने में प्राथमिकता दो क्योंकि वर्तमान भारतीय कानून में वह लावारिस हैं तथा उन्हें सालों मुकदमा लड़ना पड़ेगा- परिवार वालों की, गवाहों की या तो हत्या होगी अथवा डरा-धमकाकर अभियुक्तों के हित में बयान होगा।
मीरा कुमार जिस पार्टी में है उसकी देन Civil Rights Act है तथा कोविद जी जिस पार्टी में हैं उसकी देन उपरोक्त 2016 का Act है। मैं इस बात का समर्थक हूं कि दलित महिला पर अत्याचार के मामले में कड़ा से कड़ा दंड मिले किंतु मनुवादी पार्टी की यह मांग है कि सवर्ण तथा पिछली महिला के साथ अत्याचार में भी उतना ही कड़ा दंड मिले तथा उतनी ही त्वरित गति से। सभी वर्गों की महिलाओं की इज्जत बराबर है। 
काशीराम तथा मायावती तक ने रोजी-रोटी में आरक्षण मांगा था- बलात्कार में आरक्षण की मांग तो किसी दलित ने भी नहीं की थी। मैं यह उद्गार दलितों के विरुद्ध नहीं लिख रहा- उनके स्तर से कभी ऐसी मांग नहीं उठी कि सवर्ण तथा पिछड़ी महिलाओं के सम्मान को सम्मान न समझा जाए तथा उनसे भेदभाव किया जाए। मनुवादी पार्टी दलितों के हित में बने कानून के विरुद्ध नहीं है- हमारी मांग सिर्फ इतनी है कि सवर्ण तथा पिछड़ी महिला के बलात्कार आदि के लिए भी Special court बनाई जाए जो समयबद्ध फैसला दे। सवर्ण या पिछड़ी महिला के बलात्कार का मामला भले ही जजों की कमी के कारण लंबित/स्थगित रहे किंतु जजों की कमी चाहे और Acute क्यों न हो जाए किंतु दलित महिला को घूरकर देखने का trial अवरूद्ध न हो- उसका निर्णय 2 माह में हो- यह मोदी के "मन की बात" हो सकती है- किसी दलित नेता की मांग नहीं।

3_मीरा कुमार के पति किस जाति के थे- यह मैं नहीं जानता। किंतु बड़ी संख्या में Facebook तथा Twitter पर कुछ लोग लिख रहे हैं कि उनके पति ब्राह्मण थे तो कुछ लोग इसका जोरदार खंडन कर रहे हैं। इसकी सत्यता का पता लगाने के लिए मनुवादी पार्टी ने अपनी स्टार प्रचारिका मायावती की अध्यक्षता में एक सदस्यीय समिति नियुक्त कर दी है जिसमें वे आवश्यकतानुसार स्वविवेक से यथेप्सित सदस्यों को मनोनीत कर सकती हैं। जब उन्होंने 24 घंटों में इतना पता लगा लिया कि कोविद साहब कोरी उप जाति के हैं, जिसकी आबादी बहुत कम है तो निश्चित ही वह यह रहस्योद्घाटन करने में समर्थ होंगी कि मीरा कुमार ने किस जाति में शादी की तथा उस जाति की आबादी कितनी है। इतना प्रथमदृष्टया स्पष्ट है कि वे जगजीवन राम की जाति के नहीं होंगे। अनुलोम विवाह मनुस्मृति में मान्यता प्राप्त है। मनुस्मृति के प्रावधानों के अनुपालन के फलस्वरूप मनुवादी पार्टी अपना नैतिक समर्थन मीरा कुमार को दे रही है।

4_मीरा कुमार देश की सर्वोच्च प्रतियोगिता में सर्वोच्च सेवा के लिए चयनित हुई जिसका cut-off प्रायः IAS से अधिक जाता है तथा पहले तो लगभग 100% IAS से ऊंची merit IFS की होती थी। दलितों की साम्राज्ञी मायावती तथा दलितों के युवराज रामविलास पासवान को मीरा कुमार राजनीति के अखाड़े में पटक चुकी हैं। मनुवाद का दूसरा नाम वंशवाद है। प्रकाश अंबेडकर जब मैदान में नहीं है, तो दलितवंश में मीरा कुमार के जोड़ की वंशावली किसी की नहीं है। अतः गुणवत्ता एवं वंशावली- दोनों दृष्टि से उनकी उत्कृष्टता को ध्यान में रखकर मनुवादी पार्टी उन्हें नैतिक समर्थन दे रही है।

उपरोक्त विश्लेषण के संदर्भ में आप कह सकते हैं कि जब मनुवादी पार्टी के पास कोई वोट नहीं है तो समर्थन का अर्थ क्या है? उत्तर है- यह नैतिक समर्थन है जिसका अर्थ है-
(1)परिचर्चा, लेखों आदि से माहौल तैयार करना
(2)शुभकामना देना तथा
(3)परिणाम अनुकूल आने पर विजयोत्सव मनाना।

Tuesday, 20 June 2017

दलित नेता के रूप में भावी राष्ट्रपति का Projection क्यों? कोई राष्ट्रीय या पार्टी का नेता क्यों नहीं रहा? सभी किसी जाति के नेता क्यों रह गए हैं?

मैं किसी दलित को राष्ट्रपति बनाने या इस आधार पर उसे रोकने का पक्षधर नहीं हूं। मेरा कहना मात्र इतना है कि कभी भी गांधी बनिया नेता या सरदार पटेल कुर्मी नेता के रूप में नहीं Project किए गए। आज क्या हो रहा है देश को?
कायस्थों के स्कूल का नामकरण सुभाष चंद्र बोस के नाम पर हो रहा है जिन्हें पूरा देश "नेताजी" कह कर संबोधित करता है। राणा प्रताप जिन्हें देश का बच्चा-बच्चा सच्चे देशभक्त के रूप में पूजता है, मात्र एक क्षत्रिय के रूप में अवशिष्ट है, जिनकी मूर्ति स्थापना को लेकर सहारनपुर के दलित बवाल कर रहे हैं। और तो और कभी भी साक्षी जी महाराज, उमा भारती, कल्याण सिंह, विनय कटियार आदि की गणना पिछड़े नेता के रुप में नहीं हुई, बल्कि ये सदा धर्म योद्धाओं में अग्रणी माने गए मगर आज कोविद जी का नाम राष्ट्रपति के रूप में सामने आया तो उनका अभिनंदन तथा विरोध दोनों इस आधार पर हो रहा है कि वे दलित हैं। वे स्वयं संघ परिवार के एक प्रमुख स्तंभ रहे हैं। यह उनके व्यक्तित्व का अपमान है कि वे मात्र एक दलित बनकर रह गए- विनय कटियार तथा उमा भारती जैसे धर्म योद्धा के रूप में भी उनका चित्र नहीं उभर पाया। केशव मौर्य अशोक सिंघल के अंतरंग शिष्य थे। सोचना होगा कि क्या कमी रह गई कि वे कल्याण सिंह की तरह भाजपा के नेता/हिंदुत्व के नेता तक नहीं बन पाए तथा पिछड़े नेता के रुप में उनकी शिनाख्त हो पाई।
मायावती ने तो सारी हदें पार कर दी। मनुवाद की वे असली स्टार प्रचारिका हैं। उन्होंने न केवल कोविद साहब के दलित होने के तथ्य को उजागर किया, बल्कि उनकी उपजाति "कोरी" तक की व्याख्या कर डाली तथा यह भी बता दिया कि उनकी आबादी बहुत कम है।
हमें खुशी होगी यदि कोविद जी जैसे लोगों को जातिगत नेता के रूप में प्रचारित करने की जगह भारत देश के नेता के रुप में वरना कम-से-कम पार्टी/संघ/हिंदुओं के नेता के रूप में प्रचारित किया जाए।

Sunday, 18 June 2017

1_रजत शर्मा की अदालत में योगी का हुंकार- "ठोंक दो" 2_ बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति 3_ सचिव सभीत विभीषण जाके 4_ दैव दैव आलसी पुकारा 5_ शंबूक वध तथा ऑपरेशन भीम आर्मी: एक तुलनात्मक अध्ययन।


आखिर योगी के राज्य में अपराधी कैसे घूम रहे हैं?
न तो उन्होंने प्रदेश छोड़ा और न जेल में ही हैं। इसका कारण है: योगी का रोल मॉडल राम राज्य है जो सामान्यतया बाण उठाना पसंद नहीं करते थे और यदि उठा भी लिए तो शरणागत होते ही दयार्द्र हो जाते थे। सामान्यतया यह ठाकुर स्वभाव के विपरीत है। किंतु यही क्षत्रिय की मर्यादा है। धनुष भंग के समय जब परशुराम जी का क्रोध प्रबल से प्रबलतर होता जा रहा था, तो भी राम ने उसके ठंडा होने की प्रतीक्षा की। कहते रहे-
"विप्र वंश कै अस प्रभुताई। अभय रहहिं जो तुम्हहिं डेराही।।"
ब्राम्हण विवेकशील होता है। कितना भी परशुरामी क्यों न कर रहा हो, बिना अपनी शक्ति का आकलन किए लड़ाई नहीं छेड़ता। परशुराम ने तुरंत परशुरामी छोड़कर ब्राह्मण सुलभ स्वभाव से राम की परीक्षा ले डाली-
राम रमापति कर धनु लेहू।
खैंचहु चाप मिटै संदेहू।।
और जब परशुराम ने प्रत्यक्ष देखा-
छुअत चाप आपुहिं चढ़ि गयऊ।
परशुराम मन विस्मय भयऊ।।
तब परशुराम तपस्या करने चले गए।
इतिहास अपने को दोहराता है। राम ने यही प्रयोग शंबूक के साथ करना प्रारंभ किया। शंबूक ने जब तपस्या प्रारंभ की, तो ब्राम्हण के बच्चे को झाड़ी साफ न होने के कारण एक सांप ने डस लिया तथा ब्राह्मणपुत्र मर गया। ब्राह्मणों में रोष व्याप्त हुआ कि पिता के जीवित रहते पुत्र मृत्यु को प्राप्त हो रहा है- किस कोने से यह धर्म का राज्य है। एक विचिकित्सा हुई कि क्या वाकई में राम गोद्विजहितकारी हैं। इस विवाद को शांत करने के लिए राम को शंबूक वध करना पड़ा- उस युग के ESMA के अंतर्गत। ब्राह्मण पुत्र पुनः जीवित हो गया तथा झाड़ी साफ होती रही- 1989 तक। फिर सतीश मिश्र के सत्संग में वह स्वयं सफाईकर्मी की नौकरी के लिए फार्म भरने लगा। 1989 के बाद से वह लगातार प्रतीक्षा में है कि कभी कोई विश्वनाथ ऑपरेशन फूलन करेगा, कभी कोई राजनाथ मिर्जापुर में नक्सलाइट ऑपरेशन करके समस्या का समूल उन्मूलन कर देगा तथा कोई योगी ऑपरेशन भीम आर्मी को ध्वस्त कर देगा। आखिर आज भी ब्राह्मण किसी को राजर्षि तो किसी को गोद्विजहितकारी घोषित कर सकता है- तपस्वी ठहरा। देखिए नरसिंहा राव, जनेश्वर मिश्र, सतीश मिश्र, कलराज मिश्र, प्रमोद तिवारी- लिस्ट लंबी हो जाएगी- अपने को ज्ञानराशि का धधकता हुआ पुत्र समझने के बाद भी मौन धारण किए रहते हैं। किसी भी ब्राह्मण ने शंबूक से आज तक अपनी झाड़ी साफ करने को नहीं कहा- आखिर ब्राह्मण पुत्र (ब्राह्मणवाद) के मरने पर उसे पुनर्जीवित करने के लिए किसी गोद्विजहितकारी का राज्याभिषेक जो उसने कर रखा है। मोदी के आह्वान पर किसी रामदेव ने भले झाड़ू उठाया हो, पर रामविलास वेदांती या महंत नृत्य गोपाल दास के हाथ में झाड़ू नहीं दिखा- किसी कलराज तक को किसी कैबिनेट की बैठक में या RSS की शाखा में भले झाड़ू पकड़े फोटो किसी ने खींच ली हो, पर अपने initiativeपर कभी कोई झाड़ू पकड़ी हो ऐसा चित्र आज तक नहीं देखा। ब्राह्मण किसी योगी के सत्तारूढ़ होने की प्रतीक्षा कर लेंगे जो Biometric attendance लगवा कर attendance सुनिश्चित कर लेगा तथा झाडू लगवा लेगा।
न राम के पहले और न राम के बाद- किसी को शंबूक वध नहीं करना पड़ा। राम के पहले मनुस्मृति का शासन चलता था। कोई शंबूक यह कल्पना ही नहीं कर सकता था कि वह तपस्या करे। गो तथा द्विज का महत्व उसे पता था। महाराज दिलीप ने गाय की रक्षा के लिए अपने प्राणों को देना श्रेयस्कर समझा-
"यश: शरीरे भव मे दयालु:"
रघु ने विश्वजित् यज्ञ करके सर्वस्व दान कर रखा था तथा कोष शून्य था। ऐसे अवसर पर वरतन्तु शिष्य कौत्स जब स्वर्ण मुद्राओं की मांग के साथ उपस्थित हुआ तो राजा के शून्य कोष का स्पष्टीकरण उन्हें संतोषजनक नहीं लगा तथा विवशताओं के वर्णन की जगह महर्षि के आदेश के अनुपालन पर जोर दिया। राजा को संदेश स्पष्ट था- पैसा नहीं है तो क्या हुआ, सेना तो है। कुबेर पर आक्रमण की तैयारी हुई तथा कुबेर ने फिरौती के रूप में स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा की।
ऐसे परिवेश में न तो किसी शंबूक की समस्या होती है और न भीम आर्मी की। यह समस्या तब पैदा होती है जब राम केवट को गले लगाते हैं तथा शबरी के जूठे बेर खाते हैं। "सबका साथ सबका विकास" का नारा ही शांति व्यवस्था की समस्या का जनक है। मायावती के समय में Law and order की चतुर्दिक प्रशंसा होती है। इसका कारण है कि तिलक, तराजू, कलम और तलवार इसी बात पर परम प्रसन्न रहते हैं कि उन्हें चार जूते न मिलें। यादव दरोगा तथा सिपाही एक नई नेमप्लेट बनवा लेते हैं जिसमें "यादव" शब्द delete कर दिया जाता है।
इतनी बड़ी आबादी जहां अपने को दोयम दर्जे का नागरिक समझने लगेगी, वहां कोई जातिगत तनाव नहीं हो सकता।
योगी के सामने एक बहुत बड़ा संकट उनके दो उपमुख्यमंत्रियों का है। जब जब देश में या किसी प्रदेश में उप प्रधानमंत्री या उप मुख्यमंत्री का पद सृजित हुआ तब तब दोहरी (यहां तो तिहरी) आस्था का संकट उत्पन्न हुआ है। यदि उप मुख्यमंत्री का पद इतना ही लाभदायक है तो मोदीजी दो-तीन उप प्रधानमंत्री क्यों नहीं खोज लेते। आडवाणी या जोशी जैसों को मार्गदर्शक मंडल में सेवानिवृत्ति के बाद पेंशनभोगी बनकर भी शांतिपूर्वक जीने नहीं दिया जाता तथा जैसे ही राष्ट्रपति का प्रत्याशी बनने की उनकी चर्चा उमड़ती है, तो उस को विराम देने के लिए CBI जैसा पिंजरे का तोता इसके लिए माध्यम बन जाता है कि कैसे वे अभियुक्त के रूप में न्यायालय में पेश हों तथा Under trial माने जाएं और सर्वसम्मति ना हो। नेहरु जी ने भी एक बार पटेल को भुगत लेने के बाद दुबारा किसी को उपप्रधानमंत्री बनाने की गलती नहीं की। अटल जी जब यह उप-प्रधानमंत्री वाला प्रयोग दोहराने को मजबूर किए गए तो सारा का सारा feel good हवा-हवाई हो गया तथा भाजपा लंबे वनवास में चली गई। अखिलेश की Law& Order पर असफलता का मुख्य कारण यही था कि उनके अलावा और भी अघोषित मुख्यमंत्री थे। राजनीति का कोई भी समझदार यह सहज भाव से जान सकता है कि दो-दो उप मुख्यमंत्री योगी के सहयोग के लिए नहीं बैठाए गए होंगे, बल्कि उन पर लगाम लगाने के लिए बैठाए गए होंगे। राजनीतिक एवं प्रशासनिक शिष्टाचार भी योगी को मजबूर करता होगा कि इनके सुझावों को सामान्य मंत्रियों से अधिक महत्व दें। फिर इतना लंबा संघ का अमला बैठा है- हर कदम पर अयाचित सलाह देने के लिए जिसका अनुपालन वह आदेश की तरह चाहता है।
जब हम लोगों को प्रशासनिक गुर सिखाए जाते थे, तो एक पाठ था जिसका सार था-"Request of a senior officer is order." अर्थात अपने से वरिष्ठ अधिकारी की प्रार्थना ही आदेश है। ऐसा न करने पर उच्चाधिकारी KITA Approach(Kick in the Anus) अपनाने लगता है। KITA Approach of Management- यह हमारे syllabus में एक Lecture का हिस्सा था, जिसकी Précis वितरित की गई थी। संघ परिवार के प्राण इसी में सूखे रहते हैं कि कहीं दलित मुसलमान न हो जाए तथा इस स्थिति के निवारणार्थ वह तुष्टिकरण(appeasement) की किसी सीमा तक जा सकता है। मायावती के युग में Law & Order "बिनु प्रयास भवसागर तरहीं" की शैली में बिना प्रयास नियंत्रण में रहता है क्योंकि वहां मायावती का निर्णय सर्वोपरि है। अन्य पार्टियों में कोई सुप्रीमो नहीं है। कल्याण सिंह जैसे सख्त व्यक्तित्व को भी प्रदेश चलाने में कठिनाइयां आईं क्योंकि जिस दिन बाबरी मस्जिद गिरी, वह दिन अटल बिहारी वाजपेई जैसे लोगों के लिए कलंक का दिवस था तो कल्याण सिंह के लिए शौर्य एवं गौरव का। श्रीप्रकाश शुक्ल जैसे लोग माफियाओं तक से वसूली करते थे और मन यहां तक बढ़ गया था कि श्रीप्रकाश शुक्ल ने स्वयं तत्समय मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को हत्या की धमकी दे डाली। मैं इतिहास की ओर इसलिए ले जा रहा हूं कि भाजपा शासन में सदैव किस तरह सारी स्वच्छता तथा मर्दानगी के बावजूद अराजकता व्याप्त हो जाती है। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि भाजपा में कई शक्ति केंद्र थे, हैं और रहेंगे। 9 मंत्रियों के बारे में हर अखबार, पत्रिका में छपता था कि वे श्रीप्रकाश गिरोह को संरक्षण दे रहे हैं- उनमें से कई तो भाजपा कोटे के स्वनामधन्य मंत्री थे किंतु उन में से कल्याण सिंह जैसे कठोर व्यक्तित्व भी एक को हटा नहीं पाए। ऐसी स्थिति को भारतेंदु हरिश्चंद्र ने दुराज(Dyarchy) का नाम देते हुए रोया है-
"दुसह दुराज प्रजान को" और इस दुराज की कौन कहे-"बहुराज"(Multiple centres of power) को भाजपा की विशेषता के रूप में देखा जा सकता है जो उसको "party with a difference" बनाता है। अंत में जब कल्याण सिंह अपने पर आ गया तो श्रीप्रकाश शुक्ल का आतंक समाप्त होते देर नहीं लगी। यही कार्य कल्याण सिंह बहुत पहले भी कर सकते थे किंतु फिर भी किसी "भुलक्कड़, पियक्कड़ तथा..........." से मोर्चा खोलने का निर्णय लेना इतना आसान नहीं है- सारे अंतर्निहित तथ्यों को जानने के बावजूद भी। जब वी. पी. सिंह ने चाहा, छविराम नहीं रहा। जब कल्याण सिंह ने ठान लिया, तो श्रीप्रकाश शुक्ल का अस्तित्व समाप्त हो गया। मायावती की इच्छा के विरुद्ध ददुआ न जी सके। अगर अपराधी जिंदा है, तो राजा किसी संकोच में है, डरा हुआ है या बिका हुआ है।
कोई केजरीवाल या दिग्विजय सिंह ही किसी योगी को डरा हुआ या बिका हुआ या चुका हुआ मान सकता है, मेरे जैसा व्यक्ति तो कतई नहीं। मुझे लगता है उन्हें अपनी टीम के लोगों की बातों को राम की तरह मानना पड़ता है- भले ही वे व्यर्थ हों। समुद्र कैसे पार किया जाए, इस पर जब सखा विभीषण (जिन्हें रावण कहता है "सचिव सभीत विभीषण जाके") परामर्श देते हैं कि "विनय करहु जलनिधि सन जाई"
तो राय को मानना पड़ता है,भले ही "मंत्र न यह लछिमन मन भावा" तथा वे लक्ष्मण को भी आश्वस्त करते हैं कि वह लक्ष्मण की ही शैली पर चलेंगे लेकिन थोड़ा experiment विभीषण के भी विचारों का कर लें- आखिर मसला "सबका साथ सबका विकास" है।
रजत शर्मा को दिए गए इंटरव्यू में जब बार बार योगी जी दुहराते हैं- "ठोंक दो" तो साफ लगता है कि जिलों में जो कुछ हो रहा है वह योगी जी की कार्यशैली तथा मन:स्थिति के अनुरूप नहीं है तथा शीघ्र ही वह स्थिति आने वाली है-
विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब,
भय बिनु होइ न प्रीति।।
जैसे हर आदमी की hand writing अलग होती है, finger print impression अलग है, DNA अलग है- वैसे ही हर एक की कार्यशैली भी अलग है। अभी तक योगी जी केवल भूमिका बना रहे हैं- लगता है संयम का बांध टूटने वाला है और यदि वह टूटा तो वही होगा जो अल्टीमेटम उन्होंने अपराधियों को दिया था। कभी भी इसका मुहूर्त आ सकता है।
प्रथमदृष्टया इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि ये घटनाएं किसी के द्वारा प्रायोजित लगती हैं। जिस प्रकार राहुल गांधी का मायावती की यात्रा के पहले कोई सहारनपुर का कार्यक्रम नहीं बना- वे टटोलते रहे कि कहीं मायावती फिर दलितों को समेट पाईं तो राजपूत बोनस में कट जाएंगे तथा दलित मिलेंगे नहीं। जब लगा दलित BSP से कट रहे हैं तब जाकर Congress सामने आई। मुझे एक घटना याद आ रही है जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे तथा यह चर्चा थी कि डॉक्टर गिरीश बिहारी प्रदेश के डी.जी.पी. होंगे उस समय एक ऐसा माहौल बना कि दर्जनों लड़कों की homosexuality करके हत्या कर दी गई तथा उनकी लाशें आए दिन लखनऊ के vip इलाकों में फेंक दी जाती थीं। ऐसा माहौल कभी देखा गया न सुना गया। जब यह चर्चाएं जोर पकड़ी कि मामला खुल गया है तथा एक प्रसिद्ध राजनेता तथा एक पुलिस अफसर का नाम प्रकाश में आ रहा है तो इन घटनाओं पर एकाएक विराम लग गया तथा पुनरावृत्ति नहीं हुई।मुलायम की thin majority थी, अतः हो सकता है वह दोषियों को expose न कर सके हों। इसी प्रकार जो घटनाएं घट रही ये मात्र आपराधिक नहीं लगतीं। ये "महलों की राजनीति"(palace politics) का भाग हो सकती हैं। इन घटनाओं की अगर जड़ में जाया जाए कि ये अपराधी किस खूंटे से बंधे हैं तो स्थिति साफ हो जाएगी।ये षड्यंत्र इन कोणों से हो सकता है-
1_ योगी से असंतुष्ट कुछ महत्वपूर्ण लोग- जिनमें कुछ पार्टी के अंदर के भी हो सकते हैं तथा कुछ बाहर के भी- इस साजिश में शामिल हो सकते हैं।
2_ सुलखान सिंह जैसे स्वच्छ और तेज तर्रार व्यक्ति के DGP हो जाने से हो सकता है कुछ विभागीय अधिकारी, कर्मचारी तथा अन्य Organised mafia अपने को सहज न पा रहे हो तथा वे इस अभियान मे हों।
3_ यह देखना पड़ेगा कि जिन जगहों पर यह operation हो रहे हैं वहां कौन-कौन अधिकारी हैं तथा उनके नाम का सुझाव कहां से आया था।
सहारनपुर में executive magistrate तथा Police दोनों में बिल्कुल तालमेल नहीं था।
समय रहते दोनों में से एक अथवा दोनों क्यों नहीं get out कर दिए गए? किसका संकोच रोके था?
रामपुर की घटना स्पष्ट रुप से सुनियोजित षड्यंत्र लगती है। दर्जनों लड़के एक साथ किसी लड़की को छेड़ें, कपड़े फाड़ें, सड़क पर नंगा नाच करें तथा ऊपर से video बनाकर डाल दें- यह घटनाक्रम कहीं से स्वाभाविक नहीं लगता। अगर बालि के सामने सुग्रीव ताल ठोंक रहा है तो पीछे कोई रघुनाथ बाण लिए बैठा होगा। रामपुर की घटना के स्वतः स्फूर्त(spontaneous) होने की संभावना मुझे 0% लगती है।
अभियुक्तों के एक माह के call details देख लिए जाएं- मालूम हो जाएगा कहां से guided हैं- निकट अतीत में कौन इनका friend, philosopher and guide रहा है। फरारी के दिनों में उनको किसने शरण दी?
लूट लेना- साथ में हत्या कर देना। बलात्कार करके हत्या कर देना। कभी-कभार हो जाए तो समझ में आता है किंतु हर जगह suspense create करना- यह किसी साजिश का परिणाम लगता है।
3_बूचड़खाने बंद होने से, भू माफियाओं के चिन्हित होने से तथा अनेक अन्य विधा के माफियाओं पर नकेल कसने से क्षुब्ध लोग भी प्रशासन तथा शासन को बदनाम करने के लिए पर्दे के पीछे से इन घटनाओं को अंजाम दे सकते हैं।
इसके अलावा अन्य कई motives हो सकते हैं जैसे नोटबंदी से एक बड़ा तबका ध्वस्त हो गया है- कितने भ्रष्टाचारियों की जांचे चल रही हैं जो इतने सक्षम हैं कि अकेले या cartel बनाकर ऐसे सैकड़ों sensational काण्डों को अंजाम दे सकते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कोई महान हस्ती या संस्था इन षड्यंत्र के पीछे न हो किंतु उपद्रवी उनको source of inspiration के रूप में देखते हों। जैसे गांधी हत्याकांड में RSS का दूर-दूर तक कोई हाथ नहीं था- केवल दिग्विजय सिंह तथा केजरीवाल और राहुल कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र हैं- किंतु इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि वह अंगुलीमाल नहीं था। इसलिए उसका हृदय परिवर्तन नहीं हो सका। गांधी की हत्या के लिए उसमें अपराधबोध नहीं था। "नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे" उसका प्रिय गीत था। आज भी साक्षी जैसे तमाम संत MP उसका सादर स्मरण करते हैं।
अगर उसका शव परिजनों को मिला होता, तो संघ से अनुप्राणित तमाम लोग शव यात्रा में शामिल होते।
मैं मानता हूं कि किसी आतंकवादी से ओवैसी साहब का कोई लेना देना नहीं है किंतु यदि चार-पांच दिन थाने में रखकर illegal custody में किसी कुख्यात आतंकवादी से पूछताछ की जाए तथा उसकी death in police custody हो जाए तो सारे मानवाधिकारों के कानून उनकी स्मृति पर उभर जाएंगे तथा रो पड़ेंगे-
" हुआ कलमागोयों पे क्या सितम।
मेरा गम से सीना फिगार है।"
( बहादुर शाह जफर)
हो सकता है इन घटनाओं में साजिश न हो किंतु किसी की प्रेरणा हो।
गंभीर विवेचना जो विशेष रुप से सत्य जानने के लिए monitored हो, से ही इन तथ्यों को जाना जा सकता है। कुछ भी हो सकता है। गहराई में इनका पता करके मर्मस्थल पर चोट करने से ही अपराध रुकेगा।
रजत शर्मा के कार्यक्रम में जो योगी जी की भावना और तेवर दिख रहे थे वह यथार्थ में जमीन पर अवतरित हो पाएं तभी अपराध रुक सकते हैं।

1 क्या हिंदू मंदिर अजायबघर(Museum) पर्यटन स्थल(tourist spot) हैं कि जो चाहे बिना अवरोध घुसता चला जाए? 2_क्या राष्ट्रवादी मुसलमानों को हवन करने का अधिकार है?-संतो से प्रश्न। 3_ क्या हवन करने वाले मुसलमान- मुसलमान हैं अथवा मुनाफ़िक़? Muslim Personal Law Board तथा देवबंद तथा उलेमाओं से एक खुला सवाल। 4_ क्या ज्योति बसु, बुद्धदेव भट्टाचार्य, सीताराम येचुरी जैसे घोषित साम्यवादियों को, जो ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं तथा धर्म को गरीबों की अफीम मानते हैं,को मंदिर में प्रवेश का अधिकार है? 5_ क्या अश्वघोष जैसे किसी बौद्ध को जो हिंदू मूर्तियों में ईश्वरत्व का वास नहीं मानता चाहे वह ब्राहमण कुल में क्यों न जन्मा हो किसी मंदिर में प्रवेश का अधिकार है? 6_ क्या किसी आर्यसमाजी को सनातनी मंदिर में प्रवेश का अधिकार है, जो मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखता- धर्माचार्यों से खुला प्रश्न।

विधर्मी पुरुष से जानबूझकर सहमति के साथ शारीरिक संपर्क स्थापित करते समय एक महिला हिंदुत्व से च्युत हो जाती है तथा जब तक उसका परावर्तन संस्कार नहीं होता, तब तक वह हिंदू मंदिरों में प्रवेश का अधिकार खो देती है। ऐसा धर्मादेश अनंत श्री विभूषित स्वामी करपात्री जी महाराज ने सुनाया, तो देश में हाहाकार मच गया। करपात्री जी महाराज की स्पष्ट घोषणा थी कि "आर्येतरजनानां प्रवेशो निषिद्ध:" अर्थात आर्यों से इतर लोगों का प्रवेश निषिद्ध है। यह मुद्दा दलितों या शूद्रों या वनवासियों (जिन्हें बरगलाने वाले आदिवासी कहते हैं) के मंदिर प्रवेश का नहीं है। शूद्रों को अंत्यज माना गया है अर्थात छोटा भाई। सभी विराट पुरुष से निकले- कोई मुंह से, कोई बांह से, कोई जांघ से तो कोई पैर से। सब आपस में भाई-भाई हुए। जन्म से सभी शूद्र माने जाते थे तथा कर्म से व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र बनते थे। सगे भाई अलग-अलग वर्णों में पहुंच जाते थे। कहीं भी अंबेडकर साहब द्वारा संपादित संविधान में वंशानुगत शासन की व्यवस्था नहीं थी किंतु आज लगभग यह एक common feature बन गया है। जैसे अंबेडकर साहब को वंशानुगत शासन के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता, वैसे ही जाति व्यवस्था के लिए मनु की वर्णाश्रम व्यवस्था को दोषी नहीं ठहरा सकते। संविधान बने सौ साल भी नहीं हुए और कितने संशोधन हो गए हैं भारतीय संविधान में?
तो इतने लंबे काल चक्र में कब और कितने संशोधन हुए मनुस्मृति में- इसका क्या ठिकाना? आज जो संविधान बाजार में बिकता है, वह वही संविधान नहीं है, जो अंबेडकर द्वारा संपादित था। फिर आज की मनुस्मृति वही कैसे हो सकती है?
अगर नेहरू के समय से लेकर मोदी के समय तक जो संविधान के साथ छेड़छाड़ की गई, उसको निरस्त करने के लिए मात्र एक पंक्ति का संशोधन कर दिया जाए कि समस्त संशोधनों को निरस्त कर मूल संविधान को वापस किया जाता है तो आरक्षण स्वतः समाप्त हो जायेगा क्योंकि मूल संविधान के अनुसार 1950+10=1960 के बाद आरक्षण 0% हो जाना चाहिए था।
अगर आरक्षण समाप्त हो जाए तो अंबेडकरस्मृति तथा मनुस्मृति में केवल नाम का अंतर रह जाएगा।
करपात्री जी मानते थे कि हिंदू मंदिर मात्र एक अजायबघर नहीं है। वहां बैठी मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा होती है तथा देश का कानून भी उसे एक legal person मानता है। एक आर्यसमाजी, जिसका वेदों में विश्वास तो है, किंतु जो हनुमान जी को पूंछ वाला बंदर नहीं मानता, क्या उसे हनुमानगढ़ी में प्रवेश का अधिकार है? यही बात कम्युनिस्टों पर लागू है। जो अनुसूचित जाति का सदस्य मूर्ति पूजा में विश्वास रखता है, उसे मंदिर में प्रवेश का, पूजन का तथा अर्चन का उतना ही अधिकार है जितना किसी ब्राह्मण को। किंतु मान लीजिए अश्वघोष जैसा कोइ ब्राम्हण ही क्यों न हो, यदि वह बौद्ध धर्म स्वीकार कर ले जिसको मूर्ति में ईश्वर के निवास पर विश्वास नहीं, क्या उसे मंदिर में प्रवेश का अधिकार है?
यह सारा घपला गांधी-दर्शन तथा संघ परिवार-दर्शन की देन है। संघ परिवार ने "मसीही हिंदू" तथा "मोहम्मदी हिंदू" की अवधारणा को जन्म दिया तथा गुरु जी गोलवलकर ने गर्जना की कि "हिंदू ही यहां का राष्ट्र है तथा अन्य परकीय हैं।" मैंने पिछले कई लेखों में विस्तार से लिखा है कि मसीही हिंदू की तो एक बार कल्पना की जा सकती है पर मोहम्मदी हिंदू तो कल्पना से परे है। ईसाईयत की कोई भाषा नहीं है, ईसा एक अक्षर अंग्रेजी नहीं जानते थे। तमिल, बांग्ला तथा हिंदी- किसी भी भाषा में बाइबल पढ़ी जा सकती है तथा उतना ही पुण्य पाया जा सकता है किंतु नमाज अरबी में ही होगी तथा विवाह एवं जनेऊ के वैदिक मंत्र संस्कृत में ही बोले जाएंगे। हिंदू धर्म एक व्यापक शब्द है- इसमें वैष्णव, वेदांत, भक्ति मार्ग सार्वभौम हैं। जैन, बौद्ध आदि विश्वव्यापी हैं। किंतु सनातनी, कर्मकाण्डी, मीमांसक तथा आर्य समाजी पद्धति में किसी भाषा में भी अनुवाद काम नहीं देगा। स्वामी विवेकानंद वेदांत के प्रवक्ता हो सकते हैं, कर्मकांड के नहीं। संध्या वंदन का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ कोई आर्यसमाजी संध्या नहीं कर सकता, स्वामी दयानंद उसे संस्कृत पढ़ाकर छोड़ेंगे। A reformed Islam is no Islam. कुरान में संशोधन संभव नहीं है। इस्लाम को परिवर्तित करने वाला तस्लीमा नसरीन या सलमान रुश्दी बन जाएगा। ऐसे मुनाफ़िकों को इस्लाम काफिरों से बड़ा दुश्मन मानता है। स्वामी करपात्री जी महाराज को हवन करने वाले मुसलमान से नमाजी मुसलमान अधिक प्रिय था। दीनदार, ईमानदार मुसलमान उन्हें प्रिय थे। मोहम्मदी हिंदू की धारणा उन्हें सुपाच्य नहीं थी। इस बिंदु पर मुझे स्मरण है कि एक बार उन्होंने परम पूजनीय गोलवलकर जी को शास्त्रार्थ की चुनौती दी। गोलवलकर जी का शालीन उत्तर आया- "हीरा अपनी कीमत स्वयं नहीं जानता, उसे जौहरी जानता है। मैं तो मात्र जौहरी हूं। धर्म शास्त्र के हीरा धर्मसम्राट अनंत श्री विभूषित करपात्री जी महराज हैं। सनातन परंपरा में आप्त पुरुषों से शास्त्रार्थ का निषेध है- उनके वचन शास्त्रार्थ में उद्धृत होते हैं। जैसे कि शंकराचार्य का ऐसा मत है, रामानुजाचार्य का यह मत है, निंबार्काचार्य का यह मत है आदि, वैसे ही शास्त्रार्थ में यह उद्धृत किए जाने की चीज है कि करपात्री जी महाराज का यह मत है। किसी भी आस्तिक सनातनी को उनसे शास्त्रार्थ का अधिकार नहीं है। मैं भी उनमें से एक हूं। धर्म क्या है- इस पर जो मैं कहूं वह सत्य नहीं है, जो करपात्री जी महाराज व्याख्या करें वह सत्य है। धर्म के तत्व का मुझे ज्ञान नहीं। धर्म के तत्व की व्याख्या जो करपात्री जी महाराज कर दें, उसका अनुपालन कराने के लिए तथा उनकी साधना में कोई सुबाहु तथा ताड़का विघ्न न डाल पाएं- इसके लिए विश्वामित्र के आश्रम के बाहर खड़े प्रहरी की भूमिका में हम हैं। यदि हम उनकी व्याख्या का अनुपालन न कर सकें, तो उनके द्वारा निर्धारित दंड के भागी हैं।" स्वामी करपात्री जी महराज केवल इतना कह पाए थे- " देख रहे हो शरारत। पंचों का फैसला सिर माथे, पर खूंटा हमारा वही गड़ेगा। यही संघ संस्कृति उसे अपराजेय बनाती चली जाएगी जब तक कोई उत्तराधिकारी पथभ्रष्ट नहीं होगा।"
करपात्री जी महाराज कट्टर नमाजी, दीनदार, ईमानदार मुसलमानों को पसंद करते थे- मुनाफिकों को नहीं।
जो अपने बाप का सम्मान नहीं करेगा वह दूसरे के बाप का क्या सम्मान करेगा?
"मंदिरों में हो खुदा औ मस्जिदों में राम हो" यही फार्मूला सारे फसाद की जड़ है। राम मंदिरों में रहें तथा खुदा मस्जिद में- तो कोई बवाल नहीं रहे। हैदराबाद में ईदगाह में ईद के अवसर पर लाखों मुसलमानों के बीच एन.टी. रामाराव नमाजियों की भीड़ में बीच में घुस गए तथा गेरुआ पहने लगे नमाज पढ़ने। मनुवादी पार्टी इस ढोंग के खिलाफ है। हमारी यह समझ है कि जो मुसलमान एन. टी. रामाराव के पीछे रह कर नमाज़ पढ़े उनकी नमाज कजा हो गई तथा एन.टी. रामाराव को ऐसा नहीं करना चाहिए था। यदि एन. टी. रामाराव को नमाज पढ़नी थी तो उन्हें कलमा पढ़ कर इस्लाम कबूल कर खतना करा लेना चाहिए था तथा शौक से नमाज पढ़नी चाहिए थी। इसी प्रकार यदि किसी कांग्रेसी मुसलमान को "ईश्वर अल्लाह तेरे नाम" तथा "रघुपति राघव राजा राम" का भजन गाना हो अथवा संघ से जुड़े किसी राष्ट्रवादी मुसलमान को हवन में आहुति डालनी हो तो संघ परिवार के माध्यम से "घरवापसी कर ले" या "परावर्तन संस्कार" कर ले अथवा आर्य समाज में स्वामी श्रद्धानंद द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन करके शुद्धि करा ले तथा तब हवन करें अन्यथा एक और तो वह 'आर्येतर' होने के कारण हवन कुंड को अपवित्र कर रहे हैं तथा दूसरी ओर हवन करके कुरान की प्रतिष्ठा को तार-तार कर रहे हैं। धर्म परिवर्तन दु:खद है किंतु स्मरण रहे कि मुनकिर से कहीं अधिक खतरनाक मुनाफ़िक़ होता है। मैंने किसी बिंदु पर कोई धर्मादेश/फतवा नहीं जारी किया है। सत्संग से जो स्वल्प ज्ञान अर्जित किया है उससे जन्मी चिंताओं को भारत के कानून निर्माताओं/ विद्वान न्यायमूर्तियों/ विद्वान अधिवक्ताओं/प्रकांड विद्वानों/ धर्मगुरुओं/ बुद्धिजीवियों तथा जनमानस के समक्ष चिंतन के लिए परोसा है। इस पर सभी धर्मों/जातियों के लोगों की टिप्पणी बिना पूर्वाग्रह/बिना क्रोध के आमंत्रित है। जो भी निष्पक्ष चिंतन कर सके वही पूज्य है।

Monday, 12 June 2017

क्या गांधी जी को चतुर बनिया कहना गाली है? बनिये को बनिया ही पहचानता है। अमित शाह को धन्यवाद। "खग जाने खग ही की भाषा।" "वन के राव बड़े ही ज्ञानी। बड़न की बात बड़न ही जानी।"


1- गांधी वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक थे उन्होंने पुरुषसूक्त का भी समर्थन किया जिसमें ब्राह्मण की उत्पत्ति मुख से, क्षत्रिय की बाहों से, वैश्य की जांघ से तथा शूद्र की पैर से बताई गई है।
वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक गांधी को उनकी जाति के नाम से संबोधित करना क्या गाली है?
2- अगर जवाहरलाल नेहरु को पंडित कहना उनका सम्मान है, कश्मीर के राजा हरिसिंह को "महाराज" कहने पर उनका गौरव बढ़ता है, "पटेल" शब्द सरदार वल्लभ भाई के लिए अपमानजनक नहीं है, तो "बनिया" शब्द गांधीजी के लिए अपमानजनक क्यों?
क्या कांग्रेस गिरधर कविराय की समर्थक है-
"कहँ गिरधर कविराय बेंच हरदी औ धनिया
मित्र जानि ठगि लेहीं जहां तक पावत बनिया।"
3- जब मायावती ने गांधी को "शैतान की औलाद" कहा तो कांग्रेस का खून क्यों नहीं खौला?
गांधी जी के द्वारा "हरिजन" nickname दिए जाने से आहत मायावती ने यह उद्गार व्यक्त किए, जिस पर दलित समाज ने उसे सिर पर बिठाया।
4- सरदार पटेल के साथ गांधी ने वही व्यवहार किया जैसा शिवपाल के साथ मुलायम ने।
5- खान अब्दुल गफ्फार जैसे राष्ट्रभक्त गांधी के नाम पर रोते देखे गए-
" बापू! आपने हमें भेड़ियों के आगे डाल दिया"
6- गांधी ने "खिलाफत आंदोलन" चलाया तथा जब वह पूरे शवाब पर था, तो आंदोलन वापस ले लिया।
7- जब सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया, तो वे मृत्यु शैय्या पर थे तथा उनकी आंखों से आंसू मानो यह पता करने के लिए उमड़ पड़े कि क्या सचमुच ऐसा छल भरा षड्यंत्र किसी तथाकथित महात्मा द्वारा बनाया गया था। गांधीजी के उद्गार थे- "पट्टाभि सीतारमैया की हार मेरी हार है।"
8- गांधी ने कहा था कि "पाकिस्तान उनकी लाश पर बनेगा" पर दुनिया जानती है कि जिन्ना ने उनकी छाती पर चढ़ कर उनकी सहमति से पाकिस्तान लिया, जिसके लिए गुरुदत्त जैसे उपन्यासकार आज भी उनको "देश की हत्या" का मुजरिम मानते हैं।
9- मालवीय और गांधी की तुलना करते हुए अकबर इलाहाबादी ने उनको चतुर(cunning) घोषित किया है-

गांधी और मालवी में है क्या फर्क
इस बहस में हैं आप नाहक गर्क
फर्क वो है जो अक्ल ओ इश्क में है
एक काशी में है, एक दमिश्क में है।

और अंत में निष्कर्ष निकाला है-

हिंदू लीडरों में ईमानदार है महज मालवी मदन।
अपने मंदिर में है,
अपने गऊ के साथ है।
10- वीर विनायक दामोदर सावरकर ने लिखा है-

"Gandhi was the greatest invention of the British race." 
तथा निष्कर्ष निकाला था-

"To be cunning is not to be wise."
कांग्रेस ने सावरकर के सम्मान में डाक टिकट क्यों जारी किया?


अमित शाह ने गांधी को "चतुर बनिया" कहा। हंगामा हो गया। जैसे चतुर बनिया गाली हो। पहले इस बिंदु पर सार्वजनिक टिप्पणी की गई। अब इस बिंदु पर व्यक्तिपरक टिप्पणी की जा रही है। तुलसीदास की एक उक्ति याद आई-

"खग जानै खग ही की भाषा"

चिड़िये की बोली चिड़िया ही समझती है। घोड़े का हिनहिनाना घोड़ा समझता है। हाथी की चिंग्घाड़ हाथी की समझ में आता है। इसी प्रकार बनिए की भाषा बनिया जानता है। मनुवादी पार्टी बनिया को सम्मानीय मानती है-उसे श्रेष्ठी कहती है- The Great Man। श्रेष्ठी से ही सेठ बना है। कांग्रेस पार्टी ने व्यापार में दो नंबर के व्यापार की अवधारणा को जन्म दिया जिसमें कृत्रिम ढंग से कोटा, परमिट आदि सुविधाओं का उपयोग कर तथा बजट लीक कर दो नंबर के धंधे अपनाकर एकाएक कुछ व्यापारी आसमान पर पहुंचने लगे तथा साफ-सुथरे व्यापारी इस दौड़ में पिछड़ने लगे। समाजवादी पार्टी के युग में बनियों को कालाबाजारी का प्रतीक बनाकर होर्डिंग आदि के विरुद्ध घेराव आदि का श्रीगणेश हुआ। मुलायम युग में फंड की समस्या पैदा हुई तो सुरेंद्र मोहन अग्रवाल ने व्यापारियों के सम्मान को बढ़ाया तथा आगे तमाम सुपात्र अखिलेश युग तक बढ़ते गए। बसपा के यहां प्रारंभ में भले ही नारे लगे हों या न लगे हों पर ये नारे उसके साथ आत्मा के रुप में जुड़े हैं-

बाभन ठाकुर बनिया चोर 
बाकी सब है डी.एस.-4
तथा-
"तिलक तराजू कलम तलवार,
इनको मारो जूते चार।"
किंतु समाज साक्षी है कि मायावती युग आते-आते बनिए को श्रेष्ठी मानने का मनुवादी सिद्धांत पुनः प्रभावी हो गया-

"यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः,
स पण्डितः, स श्रुतिवान् गुणज्ञ:।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः
सर्वे गुणा: काञ्चनमाश्रयन्ति।।"

(जिसके पास पैसा है, वही मनुष्य कुलीन है- वही विद्वान है, वही शास्त्रों का ज्ञाता है, वही गुणों का ज्ञाता है, वही वक्ता है, वही दर्शनीय है।
क्यों न हो? सभी गुण सोने की शरण लेते हैं।)
अन्य जातियों में भी वही लोग बसपा में सम्मानित हुए जो श्रेष्ठी थे, सेठ थे, बनिया थे।

भाजपा तो शुरु से ही सेठों की पार्टी मानी जाती रही। धीरे-धीरे इसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा बाद में गैर-यादव पिछड़े और गैर-जाटव(गैर-गौतम) दलितों ने जगह जमाई। अब रमजान में राम मंदिर के लिए हवन करने वाले राष्ट्रवादी मुसलमानों तथा शिवपाल यादव जैसे राष्ट्रवादी यादवों की तलाश जारी है। नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे लोगों को यदि किसी जांच में घेर लिया गया, तो राष्ट्रवादी बनने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। जुगल किशोर वगैरह राष्ट्रवाद से प्रेरित हो ही चुके हैं। आगे यह क्रम जारी रहेगा। किंतु ब्राह्मण कभी कांग्रेस में रहा- कभी भाजपा में। फिर आंशिक ही सपा-बसपा तथा भाजपा की ओर भी सरका। किंतु बनिया कभी विचलित नहीं हुआ। वह कमोवेश(by and large) भाजपा से लगातार चिपका रहा। अतः मुझे नहीं लगता कि गांधीजी को अपमानित करने के लिए अमित शाह ने उनकी तुलना बनिए से की होगी। बनिया तो भाजपा की रीढ़ की हड्डी है।

रही "चतुर" विशेषण की तो- बनिया चतुर नहीं हुआ तो "बनिया" किस बात का?
चतुर ना होने पर उसका बनिया होना संदिग्ध है। अपने तथा मोदी के अतिरंजित वादों को स्वयं अमित शाह ने "जुमला" घोषित किया। जो आरोप लगाकर विपक्षी भाजपा को शर्मिंदा करना चाहते थे, उस पर अमित शाह को गर्व था। "जुमलेबाजी" भाजपा की धरोहर है। भाजपा को अमित शाह तथा मोदी जैसे जुमलेबाजों पर गर्व है।
इसीलिए उन्हें गांधी को पहचानने में देर न लगी। पीछे गांधीजी की चतुराई के कुछ दृष्टांत प्रस्तुत किए गए हैं। उनका मूल्यांकन करके गांधी से प्रेरणा लेकर अपनी जुमलेबाजी को और धार देने की अमित शाह ने प्रेरणा ली है। इस सिलसिले में एक लोककथा याद आती है, जो प्रासंगिक है। लोकोक्तियों तथा लोक-कथाओं को पंचम वेद माना गया है। एक धुनिया (रुई धुनने वाला) धुनने वाला यंत्र लेकर (जो धनुष के आकार का होता है) जंगल में जा रहा था। रास्ते में एक सियार मिल गया। सियार तथा धुनिया दोनों एक दूसरे को देख कर डर गए- अंदर तक हिल गए। सियार को लगा कि दिल्ली के बादशाह धनुष-बाण लेकर निकल पड़े हैं-प्राण संकट में हैं। धुनिये को लगा कि शेर आ गया तथा दोनों एक दूसरे को देखकर कांपने लगे। संवाद के गतिरोध को तोड़ते हुए सियार बोल उठा-

" कांधे धनुष हाथ में बाना।
कहां चले दिल्ली सुल्ताना।।"
( कंधे पर धनुष तथा हाथ में बाण- दिल्ली के सुल्तान आप कहां चल दिए?)

धुनिया थोड़ा आश्वस्त हुआ- उसे अपनी गरिमा का बोध हुआ। उसने यथोचित शिष्टाचार निभाते हुए सियार (जिसको वह शेर समझ रहा था)उसे उत्तर दिया-

"वन के राव, बड़े ही ज्ञानी।
बड़न की बात बड़े ही जानी।।"
(हे जंगल के राजा, आप महान ज्ञानी हैं। बड़ों की बात बड़े लोग ही जान सकते हैं।)

इस लोक कथा का इस संदर्भ में संदेश है- जैसे शेर और धुनिये में किसी एक ने दूसरे का अपमान नहीं किया बल्कि परस्पर सम्मान का प्रदर्शन किया, वैसे ही एक चतुर बनिए ने दूसरे चतुर बनिए के अभिनंदन में ये बातें कही हैं-
कांग्रेस को भी इसी आलोक में इसे देखना चाहिए।