Sunday, 18 June 2017

1_रजत शर्मा की अदालत में योगी का हुंकार- "ठोंक दो" 2_ बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति 3_ सचिव सभीत विभीषण जाके 4_ दैव दैव आलसी पुकारा 5_ शंबूक वध तथा ऑपरेशन भीम आर्मी: एक तुलनात्मक अध्ययन।


आखिर योगी के राज्य में अपराधी कैसे घूम रहे हैं?
न तो उन्होंने प्रदेश छोड़ा और न जेल में ही हैं। इसका कारण है: योगी का रोल मॉडल राम राज्य है जो सामान्यतया बाण उठाना पसंद नहीं करते थे और यदि उठा भी लिए तो शरणागत होते ही दयार्द्र हो जाते थे। सामान्यतया यह ठाकुर स्वभाव के विपरीत है। किंतु यही क्षत्रिय की मर्यादा है। धनुष भंग के समय जब परशुराम जी का क्रोध प्रबल से प्रबलतर होता जा रहा था, तो भी राम ने उसके ठंडा होने की प्रतीक्षा की। कहते रहे-
"विप्र वंश कै अस प्रभुताई। अभय रहहिं जो तुम्हहिं डेराही।।"
ब्राम्हण विवेकशील होता है। कितना भी परशुरामी क्यों न कर रहा हो, बिना अपनी शक्ति का आकलन किए लड़ाई नहीं छेड़ता। परशुराम ने तुरंत परशुरामी छोड़कर ब्राह्मण सुलभ स्वभाव से राम की परीक्षा ले डाली-
राम रमापति कर धनु लेहू।
खैंचहु चाप मिटै संदेहू।।
और जब परशुराम ने प्रत्यक्ष देखा-
छुअत चाप आपुहिं चढ़ि गयऊ।
परशुराम मन विस्मय भयऊ।।
तब परशुराम तपस्या करने चले गए।
इतिहास अपने को दोहराता है। राम ने यही प्रयोग शंबूक के साथ करना प्रारंभ किया। शंबूक ने जब तपस्या प्रारंभ की, तो ब्राम्हण के बच्चे को झाड़ी साफ न होने के कारण एक सांप ने डस लिया तथा ब्राह्मणपुत्र मर गया। ब्राह्मणों में रोष व्याप्त हुआ कि पिता के जीवित रहते पुत्र मृत्यु को प्राप्त हो रहा है- किस कोने से यह धर्म का राज्य है। एक विचिकित्सा हुई कि क्या वाकई में राम गोद्विजहितकारी हैं। इस विवाद को शांत करने के लिए राम को शंबूक वध करना पड़ा- उस युग के ESMA के अंतर्गत। ब्राह्मण पुत्र पुनः जीवित हो गया तथा झाड़ी साफ होती रही- 1989 तक। फिर सतीश मिश्र के सत्संग में वह स्वयं सफाईकर्मी की नौकरी के लिए फार्म भरने लगा। 1989 के बाद से वह लगातार प्रतीक्षा में है कि कभी कोई विश्वनाथ ऑपरेशन फूलन करेगा, कभी कोई राजनाथ मिर्जापुर में नक्सलाइट ऑपरेशन करके समस्या का समूल उन्मूलन कर देगा तथा कोई योगी ऑपरेशन भीम आर्मी को ध्वस्त कर देगा। आखिर आज भी ब्राह्मण किसी को राजर्षि तो किसी को गोद्विजहितकारी घोषित कर सकता है- तपस्वी ठहरा। देखिए नरसिंहा राव, जनेश्वर मिश्र, सतीश मिश्र, कलराज मिश्र, प्रमोद तिवारी- लिस्ट लंबी हो जाएगी- अपने को ज्ञानराशि का धधकता हुआ पुत्र समझने के बाद भी मौन धारण किए रहते हैं। किसी भी ब्राह्मण ने शंबूक से आज तक अपनी झाड़ी साफ करने को नहीं कहा- आखिर ब्राह्मण पुत्र (ब्राह्मणवाद) के मरने पर उसे पुनर्जीवित करने के लिए किसी गोद्विजहितकारी का राज्याभिषेक जो उसने कर रखा है। मोदी के आह्वान पर किसी रामदेव ने भले झाड़ू उठाया हो, पर रामविलास वेदांती या महंत नृत्य गोपाल दास के हाथ में झाड़ू नहीं दिखा- किसी कलराज तक को किसी कैबिनेट की बैठक में या RSS की शाखा में भले झाड़ू पकड़े फोटो किसी ने खींच ली हो, पर अपने initiativeपर कभी कोई झाड़ू पकड़ी हो ऐसा चित्र आज तक नहीं देखा। ब्राह्मण किसी योगी के सत्तारूढ़ होने की प्रतीक्षा कर लेंगे जो Biometric attendance लगवा कर attendance सुनिश्चित कर लेगा तथा झाडू लगवा लेगा।
न राम के पहले और न राम के बाद- किसी को शंबूक वध नहीं करना पड़ा। राम के पहले मनुस्मृति का शासन चलता था। कोई शंबूक यह कल्पना ही नहीं कर सकता था कि वह तपस्या करे। गो तथा द्विज का महत्व उसे पता था। महाराज दिलीप ने गाय की रक्षा के लिए अपने प्राणों को देना श्रेयस्कर समझा-
"यश: शरीरे भव मे दयालु:"
रघु ने विश्वजित् यज्ञ करके सर्वस्व दान कर रखा था तथा कोष शून्य था। ऐसे अवसर पर वरतन्तु शिष्य कौत्स जब स्वर्ण मुद्राओं की मांग के साथ उपस्थित हुआ तो राजा के शून्य कोष का स्पष्टीकरण उन्हें संतोषजनक नहीं लगा तथा विवशताओं के वर्णन की जगह महर्षि के आदेश के अनुपालन पर जोर दिया। राजा को संदेश स्पष्ट था- पैसा नहीं है तो क्या हुआ, सेना तो है। कुबेर पर आक्रमण की तैयारी हुई तथा कुबेर ने फिरौती के रूप में स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा की।
ऐसे परिवेश में न तो किसी शंबूक की समस्या होती है और न भीम आर्मी की। यह समस्या तब पैदा होती है जब राम केवट को गले लगाते हैं तथा शबरी के जूठे बेर खाते हैं। "सबका साथ सबका विकास" का नारा ही शांति व्यवस्था की समस्या का जनक है। मायावती के समय में Law and order की चतुर्दिक प्रशंसा होती है। इसका कारण है कि तिलक, तराजू, कलम और तलवार इसी बात पर परम प्रसन्न रहते हैं कि उन्हें चार जूते न मिलें। यादव दरोगा तथा सिपाही एक नई नेमप्लेट बनवा लेते हैं जिसमें "यादव" शब्द delete कर दिया जाता है।
इतनी बड़ी आबादी जहां अपने को दोयम दर्जे का नागरिक समझने लगेगी, वहां कोई जातिगत तनाव नहीं हो सकता।
योगी के सामने एक बहुत बड़ा संकट उनके दो उपमुख्यमंत्रियों का है। जब जब देश में या किसी प्रदेश में उप प्रधानमंत्री या उप मुख्यमंत्री का पद सृजित हुआ तब तब दोहरी (यहां तो तिहरी) आस्था का संकट उत्पन्न हुआ है। यदि उप मुख्यमंत्री का पद इतना ही लाभदायक है तो मोदीजी दो-तीन उप प्रधानमंत्री क्यों नहीं खोज लेते। आडवाणी या जोशी जैसों को मार्गदर्शक मंडल में सेवानिवृत्ति के बाद पेंशनभोगी बनकर भी शांतिपूर्वक जीने नहीं दिया जाता तथा जैसे ही राष्ट्रपति का प्रत्याशी बनने की उनकी चर्चा उमड़ती है, तो उस को विराम देने के लिए CBI जैसा पिंजरे का तोता इसके लिए माध्यम बन जाता है कि कैसे वे अभियुक्त के रूप में न्यायालय में पेश हों तथा Under trial माने जाएं और सर्वसम्मति ना हो। नेहरु जी ने भी एक बार पटेल को भुगत लेने के बाद दुबारा किसी को उपप्रधानमंत्री बनाने की गलती नहीं की। अटल जी जब यह उप-प्रधानमंत्री वाला प्रयोग दोहराने को मजबूर किए गए तो सारा का सारा feel good हवा-हवाई हो गया तथा भाजपा लंबे वनवास में चली गई। अखिलेश की Law& Order पर असफलता का मुख्य कारण यही था कि उनके अलावा और भी अघोषित मुख्यमंत्री थे। राजनीति का कोई भी समझदार यह सहज भाव से जान सकता है कि दो-दो उप मुख्यमंत्री योगी के सहयोग के लिए नहीं बैठाए गए होंगे, बल्कि उन पर लगाम लगाने के लिए बैठाए गए होंगे। राजनीतिक एवं प्रशासनिक शिष्टाचार भी योगी को मजबूर करता होगा कि इनके सुझावों को सामान्य मंत्रियों से अधिक महत्व दें। फिर इतना लंबा संघ का अमला बैठा है- हर कदम पर अयाचित सलाह देने के लिए जिसका अनुपालन वह आदेश की तरह चाहता है।
जब हम लोगों को प्रशासनिक गुर सिखाए जाते थे, तो एक पाठ था जिसका सार था-"Request of a senior officer is order." अर्थात अपने से वरिष्ठ अधिकारी की प्रार्थना ही आदेश है। ऐसा न करने पर उच्चाधिकारी KITA Approach(Kick in the Anus) अपनाने लगता है। KITA Approach of Management- यह हमारे syllabus में एक Lecture का हिस्सा था, जिसकी Précis वितरित की गई थी। संघ परिवार के प्राण इसी में सूखे रहते हैं कि कहीं दलित मुसलमान न हो जाए तथा इस स्थिति के निवारणार्थ वह तुष्टिकरण(appeasement) की किसी सीमा तक जा सकता है। मायावती के युग में Law & Order "बिनु प्रयास भवसागर तरहीं" की शैली में बिना प्रयास नियंत्रण में रहता है क्योंकि वहां मायावती का निर्णय सर्वोपरि है। अन्य पार्टियों में कोई सुप्रीमो नहीं है। कल्याण सिंह जैसे सख्त व्यक्तित्व को भी प्रदेश चलाने में कठिनाइयां आईं क्योंकि जिस दिन बाबरी मस्जिद गिरी, वह दिन अटल बिहारी वाजपेई जैसे लोगों के लिए कलंक का दिवस था तो कल्याण सिंह के लिए शौर्य एवं गौरव का। श्रीप्रकाश शुक्ल जैसे लोग माफियाओं तक से वसूली करते थे और मन यहां तक बढ़ गया था कि श्रीप्रकाश शुक्ल ने स्वयं तत्समय मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को हत्या की धमकी दे डाली। मैं इतिहास की ओर इसलिए ले जा रहा हूं कि भाजपा शासन में सदैव किस तरह सारी स्वच्छता तथा मर्दानगी के बावजूद अराजकता व्याप्त हो जाती है। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि भाजपा में कई शक्ति केंद्र थे, हैं और रहेंगे। 9 मंत्रियों के बारे में हर अखबार, पत्रिका में छपता था कि वे श्रीप्रकाश गिरोह को संरक्षण दे रहे हैं- उनमें से कई तो भाजपा कोटे के स्वनामधन्य मंत्री थे किंतु उन में से कल्याण सिंह जैसे कठोर व्यक्तित्व भी एक को हटा नहीं पाए। ऐसी स्थिति को भारतेंदु हरिश्चंद्र ने दुराज(Dyarchy) का नाम देते हुए रोया है-
"दुसह दुराज प्रजान को" और इस दुराज की कौन कहे-"बहुराज"(Multiple centres of power) को भाजपा की विशेषता के रूप में देखा जा सकता है जो उसको "party with a difference" बनाता है। अंत में जब कल्याण सिंह अपने पर आ गया तो श्रीप्रकाश शुक्ल का आतंक समाप्त होते देर नहीं लगी। यही कार्य कल्याण सिंह बहुत पहले भी कर सकते थे किंतु फिर भी किसी "भुलक्कड़, पियक्कड़ तथा..........." से मोर्चा खोलने का निर्णय लेना इतना आसान नहीं है- सारे अंतर्निहित तथ्यों को जानने के बावजूद भी। जब वी. पी. सिंह ने चाहा, छविराम नहीं रहा। जब कल्याण सिंह ने ठान लिया, तो श्रीप्रकाश शुक्ल का अस्तित्व समाप्त हो गया। मायावती की इच्छा के विरुद्ध ददुआ न जी सके। अगर अपराधी जिंदा है, तो राजा किसी संकोच में है, डरा हुआ है या बिका हुआ है।
कोई केजरीवाल या दिग्विजय सिंह ही किसी योगी को डरा हुआ या बिका हुआ या चुका हुआ मान सकता है, मेरे जैसा व्यक्ति तो कतई नहीं। मुझे लगता है उन्हें अपनी टीम के लोगों की बातों को राम की तरह मानना पड़ता है- भले ही वे व्यर्थ हों। समुद्र कैसे पार किया जाए, इस पर जब सखा विभीषण (जिन्हें रावण कहता है "सचिव सभीत विभीषण जाके") परामर्श देते हैं कि "विनय करहु जलनिधि सन जाई"
तो राय को मानना पड़ता है,भले ही "मंत्र न यह लछिमन मन भावा" तथा वे लक्ष्मण को भी आश्वस्त करते हैं कि वह लक्ष्मण की ही शैली पर चलेंगे लेकिन थोड़ा experiment विभीषण के भी विचारों का कर लें- आखिर मसला "सबका साथ सबका विकास" है।
रजत शर्मा को दिए गए इंटरव्यू में जब बार बार योगी जी दुहराते हैं- "ठोंक दो" तो साफ लगता है कि जिलों में जो कुछ हो रहा है वह योगी जी की कार्यशैली तथा मन:स्थिति के अनुरूप नहीं है तथा शीघ्र ही वह स्थिति आने वाली है-
विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब,
भय बिनु होइ न प्रीति।।
जैसे हर आदमी की hand writing अलग होती है, finger print impression अलग है, DNA अलग है- वैसे ही हर एक की कार्यशैली भी अलग है। अभी तक योगी जी केवल भूमिका बना रहे हैं- लगता है संयम का बांध टूटने वाला है और यदि वह टूटा तो वही होगा जो अल्टीमेटम उन्होंने अपराधियों को दिया था। कभी भी इसका मुहूर्त आ सकता है।
प्रथमदृष्टया इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि ये घटनाएं किसी के द्वारा प्रायोजित लगती हैं। जिस प्रकार राहुल गांधी का मायावती की यात्रा के पहले कोई सहारनपुर का कार्यक्रम नहीं बना- वे टटोलते रहे कि कहीं मायावती फिर दलितों को समेट पाईं तो राजपूत बोनस में कट जाएंगे तथा दलित मिलेंगे नहीं। जब लगा दलित BSP से कट रहे हैं तब जाकर Congress सामने आई। मुझे एक घटना याद आ रही है जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे तथा यह चर्चा थी कि डॉक्टर गिरीश बिहारी प्रदेश के डी.जी.पी. होंगे उस समय एक ऐसा माहौल बना कि दर्जनों लड़कों की homosexuality करके हत्या कर दी गई तथा उनकी लाशें आए दिन लखनऊ के vip इलाकों में फेंक दी जाती थीं। ऐसा माहौल कभी देखा गया न सुना गया। जब यह चर्चाएं जोर पकड़ी कि मामला खुल गया है तथा एक प्रसिद्ध राजनेता तथा एक पुलिस अफसर का नाम प्रकाश में आ रहा है तो इन घटनाओं पर एकाएक विराम लग गया तथा पुनरावृत्ति नहीं हुई।मुलायम की thin majority थी, अतः हो सकता है वह दोषियों को expose न कर सके हों। इसी प्रकार जो घटनाएं घट रही ये मात्र आपराधिक नहीं लगतीं। ये "महलों की राजनीति"(palace politics) का भाग हो सकती हैं। इन घटनाओं की अगर जड़ में जाया जाए कि ये अपराधी किस खूंटे से बंधे हैं तो स्थिति साफ हो जाएगी।ये षड्यंत्र इन कोणों से हो सकता है-
1_ योगी से असंतुष्ट कुछ महत्वपूर्ण लोग- जिनमें कुछ पार्टी के अंदर के भी हो सकते हैं तथा कुछ बाहर के भी- इस साजिश में शामिल हो सकते हैं।
2_ सुलखान सिंह जैसे स्वच्छ और तेज तर्रार व्यक्ति के DGP हो जाने से हो सकता है कुछ विभागीय अधिकारी, कर्मचारी तथा अन्य Organised mafia अपने को सहज न पा रहे हो तथा वे इस अभियान मे हों।
3_ यह देखना पड़ेगा कि जिन जगहों पर यह operation हो रहे हैं वहां कौन-कौन अधिकारी हैं तथा उनके नाम का सुझाव कहां से आया था।
सहारनपुर में executive magistrate तथा Police दोनों में बिल्कुल तालमेल नहीं था।
समय रहते दोनों में से एक अथवा दोनों क्यों नहीं get out कर दिए गए? किसका संकोच रोके था?
रामपुर की घटना स्पष्ट रुप से सुनियोजित षड्यंत्र लगती है। दर्जनों लड़के एक साथ किसी लड़की को छेड़ें, कपड़े फाड़ें, सड़क पर नंगा नाच करें तथा ऊपर से video बनाकर डाल दें- यह घटनाक्रम कहीं से स्वाभाविक नहीं लगता। अगर बालि के सामने सुग्रीव ताल ठोंक रहा है तो पीछे कोई रघुनाथ बाण लिए बैठा होगा। रामपुर की घटना के स्वतः स्फूर्त(spontaneous) होने की संभावना मुझे 0% लगती है।
अभियुक्तों के एक माह के call details देख लिए जाएं- मालूम हो जाएगा कहां से guided हैं- निकट अतीत में कौन इनका friend, philosopher and guide रहा है। फरारी के दिनों में उनको किसने शरण दी?
लूट लेना- साथ में हत्या कर देना। बलात्कार करके हत्या कर देना। कभी-कभार हो जाए तो समझ में आता है किंतु हर जगह suspense create करना- यह किसी साजिश का परिणाम लगता है।
3_बूचड़खाने बंद होने से, भू माफियाओं के चिन्हित होने से तथा अनेक अन्य विधा के माफियाओं पर नकेल कसने से क्षुब्ध लोग भी प्रशासन तथा शासन को बदनाम करने के लिए पर्दे के पीछे से इन घटनाओं को अंजाम दे सकते हैं।
इसके अलावा अन्य कई motives हो सकते हैं जैसे नोटबंदी से एक बड़ा तबका ध्वस्त हो गया है- कितने भ्रष्टाचारियों की जांचे चल रही हैं जो इतने सक्षम हैं कि अकेले या cartel बनाकर ऐसे सैकड़ों sensational काण्डों को अंजाम दे सकते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कोई महान हस्ती या संस्था इन षड्यंत्र के पीछे न हो किंतु उपद्रवी उनको source of inspiration के रूप में देखते हों। जैसे गांधी हत्याकांड में RSS का दूर-दूर तक कोई हाथ नहीं था- केवल दिग्विजय सिंह तथा केजरीवाल और राहुल कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र हैं- किंतु इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि वह अंगुलीमाल नहीं था। इसलिए उसका हृदय परिवर्तन नहीं हो सका। गांधी की हत्या के लिए उसमें अपराधबोध नहीं था। "नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे" उसका प्रिय गीत था। आज भी साक्षी जैसे तमाम संत MP उसका सादर स्मरण करते हैं।
अगर उसका शव परिजनों को मिला होता, तो संघ से अनुप्राणित तमाम लोग शव यात्रा में शामिल होते।
मैं मानता हूं कि किसी आतंकवादी से ओवैसी साहब का कोई लेना देना नहीं है किंतु यदि चार-पांच दिन थाने में रखकर illegal custody में किसी कुख्यात आतंकवादी से पूछताछ की जाए तथा उसकी death in police custody हो जाए तो सारे मानवाधिकारों के कानून उनकी स्मृति पर उभर जाएंगे तथा रो पड़ेंगे-
" हुआ कलमागोयों पे क्या सितम।
मेरा गम से सीना फिगार है।"
( बहादुर शाह जफर)
हो सकता है इन घटनाओं में साजिश न हो किंतु किसी की प्रेरणा हो।
गंभीर विवेचना जो विशेष रुप से सत्य जानने के लिए monitored हो, से ही इन तथ्यों को जाना जा सकता है। कुछ भी हो सकता है। गहराई में इनका पता करके मर्मस्थल पर चोट करने से ही अपराध रुकेगा।
रजत शर्मा के कार्यक्रम में जो योगी जी की भावना और तेवर दिख रहे थे वह यथार्थ में जमीन पर अवतरित हो पाएं तभी अपराध रुक सकते हैं।

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