Tuesday, 6 June 2017

भीम सेना क्या है? एक hypothesis...क्या भीम सेना में मायावती/आनंद का योगदान संभव है?


जब किसी भी व्यक्ति या समाज का तुष्टिकरण( appeasement) होता है, उसे ऐसे सब्जबाग दिखाए जाते हैं जो असंभव होते हैं या संभव हों तो उन्हें करने की नियत नहीं होती है, तो क्रांति होती है- सफल या असफल क्रांति के सफल न हो पाने की स्थिति में उग्रवाद का प्रादुर्भाव होता है। गांधी ने कहा कि मैं जिन्ना को भारत का Prime Minister बना दूंगा। जिन्ना चौंका कि एक हिंदू बहुल देश का मुझे गांधी PM कैसे बना देगा?
गांधी बनाएगा या जनता बनाएगी?
यदि गांधी इतना सक्षम होगा तो जब चाहेगा दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकेगा। गांधी कहते थे कि पाकिस्तान उनकी लाश पर बनेगा किंतु उनके जीते जी उनके सीने पर चढ़कर जिन्ना ने पाकिस्तान ले लिया।
इसी प्रकार नेहरू ने कश्मीर पर अधकचरा स्टैंड लिया या तो स्टैंड लेना चाहिए था कि कश्मीर के राजा ने भारत में विलय किया है तथा कश्मीर भारत का है और यह मामला UNO में नहीं ले जाना चाहिए था अन्यथा कश्मीर को भारत में मिलाना ही नहीं चाहिए था। कश्मीर को भारत में महाराजा हरि सिंह के हस्ताक्षर से मिलाया गया तथा लीपापोती करते हुए शेख अब्दुल्ला का अविष्कार किया। Plebiscite (जनमत संग्रह) का प्रस्ताव एक आत्मघाती कदम था यदि शेख अब्दुल्ला की ही बात माननी थी तो क्या आवश्यकता थी महाराजा हरि सिंह से विलय करने की?
बढ़ती हुई फौजों को रोककर युद्धविराम कर देना गलत था। इसी दुविधा ने कश्मीर समस्या को नासूर बना दिया।
सरकार को Operation area के लिए एक अलग कानून बनाना चाहिए तथा सामान्य परिस्थितियों में फौज का deployment नहीं करना चाहिए। सामान्य उपद्रव पर PAC/स्थानीय सशस्त्र पुलिस भी नहीं जाती है- Civil Police संभालती है। Civil Police के कमजोर पड़ने पर Police Line से AP- Armed Police की Picket आती है। उसके fail होने पर PAC या उसका स्थानीय substitute.उससे भी काम न होने पर CRPF/BSF/RAF. जहां ये भी fail हो जाए वहां Army का deployment होता है।
सिद्धांत रूप में या तो Army का deployment न हो या फिर हो तो वहां पर internal emergency अंतर्गत धारा 356 लगा दी जाए तथा Army को full operation powers दी जाएं। आखिर Naxalites के विरुद्ध Army का deployment क्यों नहीं होता है?
जब सांप्रदायिक उन्माद चरम पर हो, राष्ट्रदोह हो, जातिगत हिंसा हो और इस व्यापकता की हो किCivil Police से लेकर CRPF/BSF/RAF fail कर गई हो तो अगर Army पर पथराव होता रहे तथा Army के slow movement का फायदा उठा कर trained आतंकवादी भाग निकले, तो उस पथराव को रोकने के लिए तथा आतंकवादियों को भागने न देने के लिए firing में जरा भी कोताही नहीं करनी चाहिए । कभी-कभार के लिए जहां मात्र शक्ति प्रदर्शन तथा Flag March के लिए 10-5 दिनों या अधिकतम 1 माह के लिए Army बुलाई गई हो वहां तो Normal कानून चल सकते हैं पर जहां लंबी समय तक Army का deployment होना हो वहां प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री गंभीरता से विचार कर या तो Army के बिना काम चला सके तो चला लें अन्यथा यदि Army को deploy किया जाना अपरिहार्य हो तो उस इलाके में Internal Emergency Impose की जाए, Fundamental Rights को suspend कर दिया जाए तथा उस क्षेत्र को Army के हवाले करके Civil Administration के हस्तक्षेप को समाप्त किया जाए। Army पर पत्थर फेंके जाएं तथा उसकी आड़ में आतंकवादी बच निकले तथा पुनः Army पर attack करें-इसमें Pallet Gun की तो छोड़िए, border पर जैसे सेनाएं लड़ती है उस तरह से लड़ने की छूट दी जाए तथा Army के operation में व्यवधान डालने वालों को शत्रु सेना का एक भाग समझा जाए।
इसी प्रकार मोदी जी को मैं भीम सेना का वैचारिक जन्मदाता मानता हूं।
क्यों?- इसकी व्याख्या सुनें। उत्तर है- मायावती स्वप्न में नहीं सोच सकती कि दलितों में कोई तेजस्वी व्यक्तित्व पैदा हो। जिस दलित का नाम भी कुछ जिलो के लोग जान जाएं उसे वे पचा नहीं पाती। प्रतापगढ़ वाले राजबहादुर, वाराणसी वाले दीनानाथ भास्कर, लखनऊ के आर. के. चौधरी, खीरी के जुगल किशोर- जैसे सैकड़ों नाम गिनाए जा सकते हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है-
निकलना खुल्द से आदम का
सुनते थे बहुत लेकिन
बड़े बेआबरु होकर
तेरे कूचे से हम निकले।
बार बार ये लोग चिपकने की कोशिश किए पर जलालत झेलनी पड़ी। स्वयं काशीराम के बारे में तमाम किंवदंतियां हैं कि अंतिम दिनों में उनकी स्थिति अटल बिहारी वाजपेई या मुलायम सिंह यादव से भी कमतर रह गई थी तथा नाम उस समय राष्ट्रीय अध्यक्ष का था पर वास्तव में वह संरक्षक ही रह गए थे- heavenly figure waiting for heavenly abode का नया नाम संरक्षक है। जहां तक नौकरशाही का नाम है- राय सिंह IAS तथा कश्मीर सिंह IPS को न जाने कब आसमान पर चढ़ा कर जमीन पर ऐसा गिराया कि परखच्चे ही उड़ गए।
अंतिम कार्यकाल में IAS में एक मात्र तेजस्वी व्यक्ति कुंवर फतेह बहादुर सिंह को पंचम तल से उतार कर उनकी भूमिका प्रमुख सचिव (गृह) तक सीमित कर दी गई थी। IPS के तेजस्वी व्यक्तित्व मायावती की सत्ता समाप्ति के बाद मायावती की ओर पीछे की ओर मुड़कर नहीं देखें तथा "अब रघुवीर शरण मैं जाहुँ देहु जनि खोर"
का चीत्कार करते हुए बिना शर्त रामजी की सेना में शामिल हो गए।
नाथ प्रभुन्ह का सहज सुभाऊ।
साँसति करि पुनि करहिं पसाऊ।।
अर्थात प्रभु का स्वभाव है कि वे दुर्दशा करके ही कृपा करते हैं। गोरखपुर में शिव प्रताप शुक्ला की पूर्ण दुर्गति कर उदास, हताश और निराश कर लिया गया तो उन्हें सुषुप्तावस्था से पुनरुज्जीवित कर राज्यसभा में भेज दिया गया। किरन बेदी ने जब अपने को दिल्ली की राजनीति में "मरी हुई भेड़" तथा "दगी हुई कारतूस" के रूप में स्थापित कर दिया तो उन्हें संवैधानिक पद प्रदान किया गया। जिस समय बृजलाल जी अपनी सारी वीरगाथा को भूलकर RSS के सामने उदित राज की भांति कर जोड़े खड़े होंगे-
शाखामृग कै बड़ मनुषाई।
शाखा तें शाखा पर जाई।।
तथा दलित वोट जो भाजपा की ओर उन्मुख हुआ, इसमें किसका योगदान है, इसकी समीक्षा के दौरान तत्काल मोदी की ओर इशारा कर दुहरायेंगे
"सो सब तव प्रताप रघुराई।"
तथा " अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुवीर।"
इन शब्दों के साथ मोदी तथा शाह की ओर इशारा करेंगे- तब जाकर इन दोनों विभूतियों का स्तर के अनुरूप समायोजन होगा।
इन महान गुणों से विभूषित मायावती जब दांत तथा नाखून से विहीन बौद्ध उदित राज को नहीं पचा पाईं- तो वह भीम सेना को जन्म दे सकती हैं- यह बात मेरे गले के नीचे नहीं उतरती।
"न तेजस्तेजस्वी प्रसृतमपरेषां विषहते।"
अर्थात कोई तेजस्वी व्यक्तित्व किसी दूसरे तेजस्वी के तेज को सहन नहीं कर पाता है। यदि मायावती के भाई या किसी अन्य पदाधिकारी के खाते से किसी के खाते में fund transfer भी हुआ तो जब तक surrounding circmstances से motive का corroboration न हो, तब तक मायावती के पिछले track record को देखते हुए hypothesis के तौर पर मैं यही conclusion drawकर सकता हूं कि पैसा किसी innocent purpose के लिए दिया गया होगा तथा एक चर्चित व्यक्ति बन कर दलितों का cluster point बनने के लिए नहीं दिया गया होगा।
फिर भीम आर्मी के जन्मदाता कौन हो सकते हैं? वैचारिक स्तर पर तुष्टीकरण(appeasement) ही extremism का जन्मदाता है। मोदी ने जब अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 2015/16 पारित करवाया तभी दलितों का तुष्टिकरण पराकाष्ठा पर पहुंच गया। किसी दलित महिला को gesturesप्रदर्शित करना जैसे आंख मार देना, मुस्कुरा देना, आहें भर देना, घूर कर देखना भी इस अधिनियम के अंतर्गत इतना संवेदनशील अपराध मान लिया गया है कि उसमें अन्य विवेचनाएं (हत्या, बलात्कार आदि तक की) भले pending रह जाएं, किंतु 2 महीने के अंदर विवेचना के निस्तारण को अनिवार्य बना दिया गया तथा अगले दो महीने में special court के गठन के लिए निर्णय सुना देने का प्रावधान किया गया।
कांग्रेस ने पढ़ाई में तथा नौकरी में एवं स्थानीय निकायों में अनुसूचित जातियों को आरक्षण दिया था, जो पहले से ही विवादित था तथा बहस का विषय था। इन क्षेत्रों में भी प्रमोशन में रिजर्वेशन तथा प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण का शिगूफा छोड़कर मोदी जी ने स्थिति को और जटिल बना दिया। किंतु बलात्कार में आरक्षण यह तो बिल्कुल ही नई अवधारणा थी तथा इसकी कोई मांग भी नहीं थी।
मंदिर प्रवेश में दलितों को सुविधा हो- इस पर स्वीकार्यता बन चुकी थी तथा नौकरी में आरक्षण भी चाहे कोई पसंद करे न करे एक विवशता के रूप में ही सही- समाज इसे अंगीकृत कर चुका था। किंतु बलात्कार में सवर्ण तथा पिछड़ी महिला की इज्जत को दलित महिला की इज्जत से कमतर आंका जाए- यह बलात्कार में आरक्षण नहीं तो क्या है?
वर्तमान कानून के अनुसार यदि किसी सामान्य या पिछड़ी महिला के साथ सामूहिक बलात्कार हो जाए तो इसे इतना संवेदनशील नहीं माना है जाता कि किसी prescribed time limit ( समय सीमा)में इसके investigation या trial का परिसमापन हो अथवा इसके लिए special court बनाई जाए। निर्भया case के इतना highlight होने के बावजूद लंबे समय तक trial हुआ। इतने लंबे अंतराल में पैसे या गोली के बल पर घरवालों/गवाहों को प्रताड़ित किया जाएगा। अनुसूचित जाति की महिलाओं के यौन शोषण या मात्र अश्लील हरकतों पर सरकार यदि मृत्युदंड भी निर्धारित कर देती तो कोई एतराज ना होता किंतु सवर्ण/पिछड़ी महिला के साथ gangrape पर उतनी भी संवेदनशीलता न बरतना जितना दलित महिला के साथ प्रदर्शित gesturesमें बरती जाती है- यह बलात्कार में आरक्षण नहीं तो क्या है? क्या यह आधुनिक मनुस्मृति का मोदी संस्करण है? क्या यह गम्या और अगम्या की अवधारणा की नए संदर्भों में व्याख्या है? हिंदू धर्म शास्त्रों में गम्या उस महिला को कहते हैं जिसके साथ शारीरिक संपर्क किया जा सकता है तथा अगम्या उस नारी को कहते हैं जिसके साथ संपर्क वर्जित हो। प्राचीन व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र- इस वर्ण व्यवस्था में अपने से निम्न वर्ग की महिला गम्या हैं तथा अपने से उच्च वर्ण की महिला अगम्या है। इस नई मनुस्मृति में मोदी ने इस क्रम को reverse कर दिया है। नए कानून के अनुसार यदि पिछड़ी या सवर्ण महिला को दलित युवकों का एक समूह सामूहिक बलात्कार का शिकार बना दे तो इसमें किसी special court का गठन नहीं होगा तथा 10-20 साल तक मुकदमा चलेगा। इसके विपरीत यदि किसी सड़क पर जा रही दलित महिला को 10वीं मंजिल से कोई सवर्ण या पिछड़ा युवक देखकर मुस्कुरा दे, आंख मार दे,आह या उंसांसे भर दे तो भी बिना किसी मेडिकल के वह दो माह में chargesheeted हो जाएगा तथा 2 माह में special court द्वारा trial पूरा कर judgement pronounce हो जाएगा।
यह तुष्टीकरण (appeasement) की पराकाष्ठा थी। इसके बाद दलितों का मनोबल सातवें आसमान पर पहुंच गया तथा सवर्णो का मनोबल ध्वस्त हो गया। किंतु योगी जी महाराज के मुख्यमंत्री बनते ही सवर्णों को लगा कि अब शम्बूक से कोई खतरा नहीं तथा कम-से -कम लखनऊ के सिंघासन पर "गोद्विज हितकारी" राम का प्रतिनिधि बैठा है। राणा प्रताप के नाम से गोरखनाथ मंदिर का पुराना लगाव रहा है। सवर्णों को लगा कि उनका राज्य आ गया। दलितों को लगा कि उनके कंधों पर दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश की विजय टिकी है। अगर थोड़े ही दलित टूटकर ना आए होते तो परंपरागत वोट बैंक के बल पर मोदी का नाम अटल तथा कल्याण से भारी भरकम न पड़ता। पूरा तो छोड़िए अधिकांश ब्राह्मण समाज भी कभी मायावती के साथ नहीं था, किंतु उन्ही थोड़े से लोगों के हट जाने से मायावती हीरो से जीरो हो गईं।
कांग्रेस ने जगजीवन राम की बेटी को यदि गृहमंत्री या रक्षा मंत्री बनाकर उनके स्तर का आभामंडल(halo) दिया होता तो बसपा का जन्म ही नहीं होता तथा यदि होता भी तो अकाल मृत्यु हो जाती तथा
"लंका अचल राज तुम करहू" की उक्ति चरितार्थ होती।
जैसे बरसात की उमस में घमौरियां होती हैं- न गर्मी में न सर्दी में- वैसे ही दोनों पक्ष अपने को मजबूत समझते हैं तभी संघर्ष लंबा चलता है।
याद कीजिए मलियाना, मुरादाबाद का ईदगाह कांड तथा हाशिमपुरा जैसे वीभत्स दमनचक्र के बावजूद कांग्रेसी राज में मेरठ, मुरादाबाद, इलाहाबाद तथा अलीगढ़ में 6-6 माह धारा 144 तथा कर्फ्यू रहता था क्योंकि कांग्रेस में सभी का गुजारा था- सब उसे अपनी पार्टी मानते थे। मुलायम सिंह, मायावती तथा कल्याण सिंह के जमाने में उससे बड़े पैमाने की अव्यवस्था 2-3 दिन में खत्म होने लगीं क्योंकि सरकारें एकतरफा थीं। जब दोनों पक्ष अपना खूंटा मजबूत देखते हैं तब अराजकता आती है- बछड़ा खूंटे के बल पर उछलता है।
अगर शुद्ध न्याय हो, तो शांति व्यवस्था की समस्या नहीं होगी। यदि शुद्ध अन्याय हो और प्रशासन एकतरफा हो जाए तो भी समस्या हल हो जाएगी। किंतु जब अन्याय की आधारशीला पर टिका हुआ न्याय होने लगता है तो कानून व्यवस्था चरमरा जाती है। यदि पूर्ण निष्पक्ष कार्यवाही होने लगे अथवा दोनों पक्षों में से किसी एक को एकतरफा प्रश्रय मिलने लगे तो न तो कोई सांप्रदायिक समस्या होगी और न ही कोई जातिगत तनाव।
उचित यही है कि निष्पक्ष कार्यवाही हो- भीम सेना की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।

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