Thursday, 8 June 2017

हर नागरिक को कानून हाथ में लेने का अधिकार है। हां, किसी भी नागरिक को अंधे कानून की बनाई हुई लक्ष्मण रेखा को लांघने का अधिकार नहीं है।

बार-बार मोदीजी तथा योगीजी गौरक्षकों से तथा हिन्दू युवा वाहिनी के कार्यकर्ताओं से, संतों से एवं साध्वियों से कभी ये अपील करते देखे जाते हैं तो कभी कड़े निर्देश निर्गत करते हैं कि वे कानून को अपने हाथ में न लें वरना कानून अपना काम करेगा। यह अमित शाह के जुमला type की कोरी गीदड़ भभकी है।
कानून अपना काम करेगा तो क्या कर लेगा?करने दीजिए।इस आशय की धमकी देने वालों से मेरा विनम्र निवेदन है कि मैं 21 वर्ष की आयु में IPS के लिए चयनित हुआ तथा 40 साल तक कानून लागू करने वाली टीम के सर्वोच्च हिस्से का अंग रहा और उस IPS के भी सर्वोच्च संभव पद DG से सेवनिवृत्त हुआ। सेवा के दौरान राष्ट्रपति के स्तर से भी पुरस्कृत हुआ तथा सेवानिवृत्ति के बाद भी कानून ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। इसी क्रम में सेवानिवृत्ति के बाद प्रथम वर्ष में माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के बार का तथा द्वितीय वर्ष में उच्चतम न्यायालय के बार का सदस्य बनने का गौरव प्राप्त हुआ।
मैं पूर्ण उत्तरदायित्व की भावना से यह निवेदन करना चाहता हूं कि जहाँ तक मेरी समझ जाती है किसी भी कोने से, किसी भी नागरिक को कानून हाथ में लेने से कहीं भी रोका नहीं गया। उल्टे कानून के निर्माताओं ने उससे यह अपेक्षा की है कि वह हर कदम पर कानून को हाथ में लेने का कष्ट करे तथा कानून को हाथ में लेने से बचने वाले लोगों को कानून निर्माता मैकाले ने नपुंसक कहा है।
मैं यहां धारा 96 IPC से लेकर धारा 106 IPC तक को विशेष रूप से पढ़ने का निवेदन कर रहा हूं। आपने किसी मुठभेड़ में कुछ डकैतों, नक्सलवादियों या आतंकवादियों के मारे जाने पर आपने समाचार पत्रों में पढ़ा होगा कि अमुक अपराधी सेना या पुलिस या अर्धसैनिक बलों के हाथों मारे गए। जो-जो शक्तियां सिपाही से लेकर DG तक को पुलिस विभाग में मिली हैं लगभग वे सारी शक्तियां एक गरीब से गरीब आदमी को भी मिली हैं। जिन परिस्थितियों में पुलिस को किसी को गोली मारने या प्राण लेने का अधिकार है उन परिस्थितियों में किसी भी सामान्य नागरिक को गोली चलाने का अथवा प्राण तक ले लेने का अधिकार प्राप्त है। जब कानून बनाते समय इस बिंदु पर बहस हुई कि क्या भारत के बेपढ़े-लिखे नागरिक को इतना अधिकार देना उचित होगा तो कानून निर्माता मैकाले ने ये गर्जना की थी कि किसी भी नागरिक को मात्र पुलिस की दया पर छोड़कर उसे नपुंसक नहीं बनाया जा सकता है। वास्तव में भारत वर्ष में आम नागरिक के अधिकार इंग्लैंड व अन्य विकसित देशों के आम नागरिकों से कहीं अधिक व्यापक हैं। उदाहरण के लिए यदि इंग्लैंड में किसी अज्ञात महिला से बलात्कार हो रहा हो तो किसी बाहरी आदमी को उसके सम्मान की रक्षा के लिए उस बलात्कारी के प्राण लेने का अधिकार नहीं है। इसके विपरीत भारत में पराई नारी के सम्मान की रक्षा के लिए जटायु की तरह अपने प्राण दे देने अथवा दूसरे के प्राण ले लेने का पूर्ण अधिकार है। धारा 96 से लेकर धारा 106 IPC में विस्तार से वर्णन है कि किन परिस्थितियों में कोई आम नागरिक किसी दूसरे व्यक्ति के प्राण भी ले सकता है तथा किन परिस्थितियों में प्राण तो नहीं ले सकता किंतु किसी के सम्मान, शरीर, संपत्ति की रक्षा के लिये सामान्य बल का प्रयोग कर सकता है जिससे किसी के प्राण न जाएं।
हां यह बात अवश्य ध्यान में रखने की है कि कानून में अपने तथा दूसरों की तथा कानून की रक्षा के लिए कानून द्वारा दिये गए अधिकार की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन करने का कोई अधिकार नहीं है। मन लीजिये कुछ लड़के किसी लड़की से छेड़खानी कर रहे हैं तो ऐसी स्थिति में आम नागरिक को तैश में आकर गोली चला देने का अधिकार नहीं है बल्कि सामान्य बल का प्रयोग करके- न्यूनतम बल जिससे परिस्थिति को संभाला जा सके- का प्रयोग कर के स्थिति को नियंत्रण में लाने का अधिकार है किंतु किसी भी परिस्थिति में निकटतम थाने को शीघ्रातिशीघ्र संसूचित किया जाना अनिवार्य है।
कानून यह अपेक्षा नहीं करता है कि यदि किसी लड़की से बलात्कार हो रहा हो तो दर्शक किसी पुलिस अधिकारी या सचिवालय को मात्र twitter कर दें तथा साक्ष्य के लिये video बना कर मात्र थानाध्यक्ष तथा उच्चाधिकारियों को भेज दें और अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लें। इसके विपरीत प्राणों की बाजी लगाकर अपराध को रोकने तथा पुलिस को तत्काल सूचित करने की अपेक्षा की जाती है।
यही बात गौरक्षकों पर भी लागू होती है। प्रश्न है कि यदि गोवध के लिए गायें ट्रक में ले जाई जा रही हों तो क्या मात्र उन गायों की फोटो खींचकर थाने को भेज देना या पुलिस विभाग को twitter कर देना ही गौरक्षकों की नियति रह जाएगी?
क्या वे सड़क पर उस ट्रक को रोककर उसे पुलिस को फोनकर सूचित नहीं कर सकते हैं?
इस पर माननीय विद्वान न्यायाधीश तथा माननीय विद्वान अधिवक्ता तथा किसी भी पार्टी से जुड़े think tank को मैं टिप्पणी के रूप में उनका अभिमत स्वरूप आशीर्वाद मांग रहा हूँ। हां यह अवश्य है कि उन्हें सुनिश्चित करना होगा कि ट्रक के रुकने के बाद और पुलिस के आने के बीच कोई भी किसी भी अभियुक्त को एक थप्पड़ न मारने पाए । इसी को मैं कहता हूं कि किसी को भी हाथ में कानून लेने का अधिकार है किंतु कितनी भी अच्छी नियत से किसी भी परिस्थिति में अंधे कानून की अंधी लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। मैं इस प्रश्न का निर्णय स्वयं न सुनाकर ऊपर वर्णित महानुभाओं से टिप्पणी देने का अनुरोध कर रहा हूं।
लोहिया के इस वाक्य से मैं पूर्ण रूपेण सहमत हूँ तथा मुझमें उसमें कहीं भी अराजकता की बू नहीं आती
" जिंदा कौमें5 साल तक इंतजार नहीं करती" किंतु लोहिया की दूसरी घोषणा को मैं अराजकता की जननी मानता हूं जिसमे कहा गया है कि "भीड़ को अनियंत्रित होने का अधिकार है।"

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