Sunday, 18 June 2017

1 क्या हिंदू मंदिर अजायबघर(Museum) पर्यटन स्थल(tourist spot) हैं कि जो चाहे बिना अवरोध घुसता चला जाए? 2_क्या राष्ट्रवादी मुसलमानों को हवन करने का अधिकार है?-संतो से प्रश्न। 3_ क्या हवन करने वाले मुसलमान- मुसलमान हैं अथवा मुनाफ़िक़? Muslim Personal Law Board तथा देवबंद तथा उलेमाओं से एक खुला सवाल। 4_ क्या ज्योति बसु, बुद्धदेव भट्टाचार्य, सीताराम येचुरी जैसे घोषित साम्यवादियों को, जो ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं तथा धर्म को गरीबों की अफीम मानते हैं,को मंदिर में प्रवेश का अधिकार है? 5_ क्या अश्वघोष जैसे किसी बौद्ध को जो हिंदू मूर्तियों में ईश्वरत्व का वास नहीं मानता चाहे वह ब्राहमण कुल में क्यों न जन्मा हो किसी मंदिर में प्रवेश का अधिकार है? 6_ क्या किसी आर्यसमाजी को सनातनी मंदिर में प्रवेश का अधिकार है, जो मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखता- धर्माचार्यों से खुला प्रश्न।

विधर्मी पुरुष से जानबूझकर सहमति के साथ शारीरिक संपर्क स्थापित करते समय एक महिला हिंदुत्व से च्युत हो जाती है तथा जब तक उसका परावर्तन संस्कार नहीं होता, तब तक वह हिंदू मंदिरों में प्रवेश का अधिकार खो देती है। ऐसा धर्मादेश अनंत श्री विभूषित स्वामी करपात्री जी महाराज ने सुनाया, तो देश में हाहाकार मच गया। करपात्री जी महाराज की स्पष्ट घोषणा थी कि "आर्येतरजनानां प्रवेशो निषिद्ध:" अर्थात आर्यों से इतर लोगों का प्रवेश निषिद्ध है। यह मुद्दा दलितों या शूद्रों या वनवासियों (जिन्हें बरगलाने वाले आदिवासी कहते हैं) के मंदिर प्रवेश का नहीं है। शूद्रों को अंत्यज माना गया है अर्थात छोटा भाई। सभी विराट पुरुष से निकले- कोई मुंह से, कोई बांह से, कोई जांघ से तो कोई पैर से। सब आपस में भाई-भाई हुए। जन्म से सभी शूद्र माने जाते थे तथा कर्म से व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र बनते थे। सगे भाई अलग-अलग वर्णों में पहुंच जाते थे। कहीं भी अंबेडकर साहब द्वारा संपादित संविधान में वंशानुगत शासन की व्यवस्था नहीं थी किंतु आज लगभग यह एक common feature बन गया है। जैसे अंबेडकर साहब को वंशानुगत शासन के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता, वैसे ही जाति व्यवस्था के लिए मनु की वर्णाश्रम व्यवस्था को दोषी नहीं ठहरा सकते। संविधान बने सौ साल भी नहीं हुए और कितने संशोधन हो गए हैं भारतीय संविधान में?
तो इतने लंबे काल चक्र में कब और कितने संशोधन हुए मनुस्मृति में- इसका क्या ठिकाना? आज जो संविधान बाजार में बिकता है, वह वही संविधान नहीं है, जो अंबेडकर द्वारा संपादित था। फिर आज की मनुस्मृति वही कैसे हो सकती है?
अगर नेहरू के समय से लेकर मोदी के समय तक जो संविधान के साथ छेड़छाड़ की गई, उसको निरस्त करने के लिए मात्र एक पंक्ति का संशोधन कर दिया जाए कि समस्त संशोधनों को निरस्त कर मूल संविधान को वापस किया जाता है तो आरक्षण स्वतः समाप्त हो जायेगा क्योंकि मूल संविधान के अनुसार 1950+10=1960 के बाद आरक्षण 0% हो जाना चाहिए था।
अगर आरक्षण समाप्त हो जाए तो अंबेडकरस्मृति तथा मनुस्मृति में केवल नाम का अंतर रह जाएगा।
करपात्री जी मानते थे कि हिंदू मंदिर मात्र एक अजायबघर नहीं है। वहां बैठी मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा होती है तथा देश का कानून भी उसे एक legal person मानता है। एक आर्यसमाजी, जिसका वेदों में विश्वास तो है, किंतु जो हनुमान जी को पूंछ वाला बंदर नहीं मानता, क्या उसे हनुमानगढ़ी में प्रवेश का अधिकार है? यही बात कम्युनिस्टों पर लागू है। जो अनुसूचित जाति का सदस्य मूर्ति पूजा में विश्वास रखता है, उसे मंदिर में प्रवेश का, पूजन का तथा अर्चन का उतना ही अधिकार है जितना किसी ब्राह्मण को। किंतु मान लीजिए अश्वघोष जैसा कोइ ब्राम्हण ही क्यों न हो, यदि वह बौद्ध धर्म स्वीकार कर ले जिसको मूर्ति में ईश्वर के निवास पर विश्वास नहीं, क्या उसे मंदिर में प्रवेश का अधिकार है?
यह सारा घपला गांधी-दर्शन तथा संघ परिवार-दर्शन की देन है। संघ परिवार ने "मसीही हिंदू" तथा "मोहम्मदी हिंदू" की अवधारणा को जन्म दिया तथा गुरु जी गोलवलकर ने गर्जना की कि "हिंदू ही यहां का राष्ट्र है तथा अन्य परकीय हैं।" मैंने पिछले कई लेखों में विस्तार से लिखा है कि मसीही हिंदू की तो एक बार कल्पना की जा सकती है पर मोहम्मदी हिंदू तो कल्पना से परे है। ईसाईयत की कोई भाषा नहीं है, ईसा एक अक्षर अंग्रेजी नहीं जानते थे। तमिल, बांग्ला तथा हिंदी- किसी भी भाषा में बाइबल पढ़ी जा सकती है तथा उतना ही पुण्य पाया जा सकता है किंतु नमाज अरबी में ही होगी तथा विवाह एवं जनेऊ के वैदिक मंत्र संस्कृत में ही बोले जाएंगे। हिंदू धर्म एक व्यापक शब्द है- इसमें वैष्णव, वेदांत, भक्ति मार्ग सार्वभौम हैं। जैन, बौद्ध आदि विश्वव्यापी हैं। किंतु सनातनी, कर्मकाण्डी, मीमांसक तथा आर्य समाजी पद्धति में किसी भाषा में भी अनुवाद काम नहीं देगा। स्वामी विवेकानंद वेदांत के प्रवक्ता हो सकते हैं, कर्मकांड के नहीं। संध्या वंदन का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ कोई आर्यसमाजी संध्या नहीं कर सकता, स्वामी दयानंद उसे संस्कृत पढ़ाकर छोड़ेंगे। A reformed Islam is no Islam. कुरान में संशोधन संभव नहीं है। इस्लाम को परिवर्तित करने वाला तस्लीमा नसरीन या सलमान रुश्दी बन जाएगा। ऐसे मुनाफ़िकों को इस्लाम काफिरों से बड़ा दुश्मन मानता है। स्वामी करपात्री जी महाराज को हवन करने वाले मुसलमान से नमाजी मुसलमान अधिक प्रिय था। दीनदार, ईमानदार मुसलमान उन्हें प्रिय थे। मोहम्मदी हिंदू की धारणा उन्हें सुपाच्य नहीं थी। इस बिंदु पर मुझे स्मरण है कि एक बार उन्होंने परम पूजनीय गोलवलकर जी को शास्त्रार्थ की चुनौती दी। गोलवलकर जी का शालीन उत्तर आया- "हीरा अपनी कीमत स्वयं नहीं जानता, उसे जौहरी जानता है। मैं तो मात्र जौहरी हूं। धर्म शास्त्र के हीरा धर्मसम्राट अनंत श्री विभूषित करपात्री जी महराज हैं। सनातन परंपरा में आप्त पुरुषों से शास्त्रार्थ का निषेध है- उनके वचन शास्त्रार्थ में उद्धृत होते हैं। जैसे कि शंकराचार्य का ऐसा मत है, रामानुजाचार्य का यह मत है, निंबार्काचार्य का यह मत है आदि, वैसे ही शास्त्रार्थ में यह उद्धृत किए जाने की चीज है कि करपात्री जी महाराज का यह मत है। किसी भी आस्तिक सनातनी को उनसे शास्त्रार्थ का अधिकार नहीं है। मैं भी उनमें से एक हूं। धर्म क्या है- इस पर जो मैं कहूं वह सत्य नहीं है, जो करपात्री जी महाराज व्याख्या करें वह सत्य है। धर्म के तत्व का मुझे ज्ञान नहीं। धर्म के तत्व की व्याख्या जो करपात्री जी महाराज कर दें, उसका अनुपालन कराने के लिए तथा उनकी साधना में कोई सुबाहु तथा ताड़का विघ्न न डाल पाएं- इसके लिए विश्वामित्र के आश्रम के बाहर खड़े प्रहरी की भूमिका में हम हैं। यदि हम उनकी व्याख्या का अनुपालन न कर सकें, तो उनके द्वारा निर्धारित दंड के भागी हैं।" स्वामी करपात्री जी महराज केवल इतना कह पाए थे- " देख रहे हो शरारत। पंचों का फैसला सिर माथे, पर खूंटा हमारा वही गड़ेगा। यही संघ संस्कृति उसे अपराजेय बनाती चली जाएगी जब तक कोई उत्तराधिकारी पथभ्रष्ट नहीं होगा।"
करपात्री जी महाराज कट्टर नमाजी, दीनदार, ईमानदार मुसलमानों को पसंद करते थे- मुनाफिकों को नहीं।
जो अपने बाप का सम्मान नहीं करेगा वह दूसरे के बाप का क्या सम्मान करेगा?
"मंदिरों में हो खुदा औ मस्जिदों में राम हो" यही फार्मूला सारे फसाद की जड़ है। राम मंदिरों में रहें तथा खुदा मस्जिद में- तो कोई बवाल नहीं रहे। हैदराबाद में ईदगाह में ईद के अवसर पर लाखों मुसलमानों के बीच एन.टी. रामाराव नमाजियों की भीड़ में बीच में घुस गए तथा गेरुआ पहने लगे नमाज पढ़ने। मनुवादी पार्टी इस ढोंग के खिलाफ है। हमारी यह समझ है कि जो मुसलमान एन. टी. रामाराव के पीछे रह कर नमाज़ पढ़े उनकी नमाज कजा हो गई तथा एन.टी. रामाराव को ऐसा नहीं करना चाहिए था। यदि एन. टी. रामाराव को नमाज पढ़नी थी तो उन्हें कलमा पढ़ कर इस्लाम कबूल कर खतना करा लेना चाहिए था तथा शौक से नमाज पढ़नी चाहिए थी। इसी प्रकार यदि किसी कांग्रेसी मुसलमान को "ईश्वर अल्लाह तेरे नाम" तथा "रघुपति राघव राजा राम" का भजन गाना हो अथवा संघ से जुड़े किसी राष्ट्रवादी मुसलमान को हवन में आहुति डालनी हो तो संघ परिवार के माध्यम से "घरवापसी कर ले" या "परावर्तन संस्कार" कर ले अथवा आर्य समाज में स्वामी श्रद्धानंद द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन करके शुद्धि करा ले तथा तब हवन करें अन्यथा एक और तो वह 'आर्येतर' होने के कारण हवन कुंड को अपवित्र कर रहे हैं तथा दूसरी ओर हवन करके कुरान की प्रतिष्ठा को तार-तार कर रहे हैं। धर्म परिवर्तन दु:खद है किंतु स्मरण रहे कि मुनकिर से कहीं अधिक खतरनाक मुनाफ़िक़ होता है। मैंने किसी बिंदु पर कोई धर्मादेश/फतवा नहीं जारी किया है। सत्संग से जो स्वल्प ज्ञान अर्जित किया है उससे जन्मी चिंताओं को भारत के कानून निर्माताओं/ विद्वान न्यायमूर्तियों/ विद्वान अधिवक्ताओं/प्रकांड विद्वानों/ धर्मगुरुओं/ बुद्धिजीवियों तथा जनमानस के समक्ष चिंतन के लिए परोसा है। इस पर सभी धर्मों/जातियों के लोगों की टिप्पणी बिना पूर्वाग्रह/बिना क्रोध के आमंत्रित है। जो भी निष्पक्ष चिंतन कर सके वही पूज्य है।

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