Friday, 2 June 2017

गोरखपुर के IPS सुश्री चारू निगम/ विधायक श्री राधा मोहन अग्रवाल प्रकरण का समीक्षात्मक विश्लेषण

गोरखपुर में जब अफसर महिला थी तो मीडिया ने उन्हें बेचारी घोषित कर दिया तथा बाराबंकी में नेता महिला थी तो उसे दबंगई का दोषी माना गया। मैं चारु निगम को दोषी नहीं ठहरा रहा क्योंकि She was an under training and an officer to be groomed.
क्या उसे प्रेक्टिकल ट्रेनिंग देने वाले SP City/ SSP तथा अन्य वरिष्ठ अधिकारियों ने अपने कर्तव्य का निर्वहन किया?
क्या उन्होंने उस lady officer को सही training दी?
इसी गोरखपुर में एक SSP होते थे श्री महेश चंद्र द्विवेदी- मामूली सी बात पर सत्ता की हनक में न आकर उन्होंने SSP की कुर्सी छोड़ दी।
ऊंट की चोरी निहुरे-निहुरे (झुक कर) नहीं होती।
या तो कोई अधिकारी दब कर नौकरों-चाकरों की तरह रहे अन्यथा सीने पर चढ़कर परिणाम की परवाह किए बगैर वैधानिक कार्यवाही करे।
इसी गोरखपुर जिले में एक पुलिस अधीक्षक(नगर) होते थे श्री बृजमोहन सारस्वत जिन्होंने ३६ का आंकड़ा रखने वाले राजनीतिक माफियाओं को अपनी उंगली पर नचाया तथा रास्ते में व्यवधान बनने वाले वरिष्ठ IAS/IPS अधिकारियों को ललकार दिया तथा प्रबल अत्याचार की दशा में भी
"न दैन्यं न पलायनम्"
न दीनता के शिकार हुए न मैदान छोड़कर भागे। मगर यह तब हो सका जब उनके प्रचंड शत्रु भी उनके चाल, चरित्र और चेहरे पर उंगली उठाने की हिमाकत नहीं कर सके
Caesar's wife should be above suspicion.
आजकल एक गजब की मर्दानगी IAS/IPS में दिख रही है किसी MP की गाली खाकर FIR तक करने का साहस न करना और Social Media में दया तथा सहानुभूति का पात्र बनना। सहारनपुर, आगरा तथा बाराबंकी की घटनाएं Iceberg की tip मात्र हैं। मर्दानगी दिखाने के लिए character, integrity तथा hard work का structure चाहिए मगर महेश चंद्र द्विवेदी तब यह दृढ़ता दिखा पाए जब वह थाने पर बैठकर एक कप चाय पीना तक बेईमानी समझते थे। मैं उनका ASP (Under Training) था जैसे चारु निगम गोरखपुर में थी। मुझे लकड़ी का एक Kitchenbox गिफ्ट में दिया था तथा देहात जाने पर 1 follower को इसे लेकर जाने का निर्देश था तथा वह चाय बनाकर पिलाता था तो पी सकते थे।
S.O. की कृपा पर अगर वरिष्ठ अधिकारी जिंदा रहेंगे तो वे "चोरी और सीनाजोरी" एक साथ नहीं कर सकते। मैं चारू निगम की कोई गलती नहीं मानता -उसे नहीं मालूम की पुलिस किस चिड़िया का नाम है। चिलुआताल थाने में किसी रिक्शे वाले से पूछ लीजिए कि 50 लीटर कच्ची शराब चाहिए- वह आपको ठेकी पर पहुंचा देगा। मैं वहां का निवासी हूं मेरा पाही का गांव है। वहां कई सौ अवैध शराब की फैक्ट्रियां खुलेआम चलती हैं। वहां पर सादे कपड़े में किसी अधिकारी की हिम्मत हो अपनी आंखों से जा कर देख ले -एक सिपाही दिनभर गिनती करता मिलेगा कि कितनी शराब तैयार हुई तथा बिकी। अब सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार समाप्त हो गया- सीधी डकैती हो रही है। यदि ठेकेदार खराब सड़क या building बनवाए तथा अधिकारी कमीशनखोरी करे तो इसे भ्रष्टाचार कहते हैं। यदि Building बने ही न तथा केवल adjustment हो जाए तथा ठेकेदार commission देने की जगह इस सेवा का कुछ commission पाने लगे की उस ने निर्माण कराया है- तो इसे dacoity of government funds कहते हैं। यदि पुलिस अवैध शराब पकड़े तथा पैसे लेकर छोड़ दें तो इसे corruption कहते हैं। यदि Advance हफ्ता लेकर पकड़े ही न तो इसे organised corruption कहेंगे। किंतु अवैध शराब की Factory पर एक कारखास बैठकर निर्माण की मात्रा के हिसाब से पैसा ले तो इसे partnership in criminal dacoity कहेंगे। जब रिज्वी साहब SSP Gorakhpur होते थे तथा प्रभात कुमार CO City तो SSP के निर्देश पर CO City ने एक व्यापक Raidडाली थी जिसकी चर्चा आज तक हर बच्चे की जुबान पर है। किंतु कागज पर भले ही छापे पड़े हो तथा गिरफ्तारियां हुई हों किंतु वास्तविक अर्थों में Raid सुनी नहीं गई। पुलिस का Good work दिखाने के लिए अवैध शराब बनाने वाले खुद कुछ लोगों को गिरफ्तार करा देते हैं। इस जंजाल से ASP अनभिज्ञ हो सकती है किंतु क्या SP City/SSP के कानों तक इस कारोबार की चर्चा नहीं पहुंचती होगी?
यदि वास्तव में ऐसी स्थिति है तो आतंकवादियों से देश कैसे बचेगा?
Law and order का क्या होगा?
यह एक ऐसा कार्य नहीं है जो छिपकर होता हो यह खुलकर होता है। मुख्यमंत्री जी अपनी Choice के चार चेलों से बात कर लें असलियत पता चल जाएगा- चोरी और सीनाजोरी साथ नहीं चलती है।
फिर यह प्रश्न उठता है कि क्या SDM ने दुकानें बंद कराने का निर्देश दिया था?
यदि नहीं तो दुकानें 10-12 दिन तक कैसे बंद थीं?
स्पष्ट निर्देश हैं कि Residential areas/Schools/ Religious places के पास शराब की दुकानें नहीं होनी चाहिए। इस बात पर प्रशासन को स्पष्ट बयान देना होगा कि unauthorised places पर शराब की दुकाने किसके आदेश से बंद हुई तथा किसके आदेश से खुलीं?
बिना ASP के आचरण पर कोई टिप्पणी किए हुए (क्योंकि अभी वे प्रशिक्षणाधीन हैं)। मेरा यह सुझाव है कि शासन को conduct rules स्पष्ट तौर पर परिभाषित करना होगा कि कौन प्रशासनिक अधिकारी कब किस परिस्थिति में तथा कितना react करेगा। कालिदास ने लिखा है कि
"द्वाभ्यां तृतियो न भवामि राजन्"
अर्थात यदि दो लोग बात कर रहे हों तो तीसरा व्यक्ति यदि टपकता है तो इसे उसकी मूर्खता कहा जा सकता है। कश्मीर के अलगाववादी जब थप्पड़ मारते हैं तथा force react नहीं करती है तो या तो शासन को force पर cowardice कि कार्यवाही करनी चाहिए थी अन्यथा इसे model code of conduct मानना चाहिए था। यदि विधायक ने अभद्रता की तो इस पर अधिकारियों ने तत्काल वैधानिक कार्यवाही क्यों नहीं की?
तत्काल कार्यवाही न करना तथा बाद में social media/electronic media का सहारा लेकर सहानुभूति का पात्र बनना- यह मेरी समझ में नौकरशाही की गरिमा को बढ़ाता नहीं, घटाता है।
गोरखपुर माफियाओं का गढ़ है बिना किसी का नाम लिए ही व्यक्ति जानता है कौन कितना बाहुबली है- सदर विधायक की कभी ऐसे लोगों में गणना नहीं हुई। इसके अलावा अनेक साफ-सुथरे विधायक भी हैं जिनके बारे में हर समाचार पत्र तथा चैनल में नाम समेत निकलता था कि उत्तर प्रदेश के कौन मंत्री हैं जो अपने ही मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की हत्या की धमकी देने वाले श्री प्रकाश शुक्ल को संरक्षण दे रहे थे। उसमें कुछ तो माफिया थे किंतु कुछ विद्वान समाजसेवी छवि वाले भी थे। आज भी उनमें से कई गणमान्य हैं, संयोग से सदर विधायक उनमें से भी नहीं थे। उन्हें क्रोध में नहीं आना चाहिए था- वह पुराने विधायक हैं- एक महत्वपूर्ण नेता हैं। मैं उनके कार्य को गलत मानता हूं- निंदनीय मानता हूं, किंतु जिस प्रकार अधिकारियों ने, नेताओं ने, सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उनकी छवि को एक गुंडे, माफिया या दबंग रूप में चित्रित किया वह उनके साथ अन्याय है तथा उनकी ऐसी छवि नहीं है।
हिंदू युवा वाहिनी तथा RSS के कार्यकर्ताओं से कहा जाता है कि कानून हाथ में न लें तथा अधिकारियों से शिकायत करें।
कितने अधिकारी सुनने को तैयार हैं तथा सुनने के बाद कितने आदेश करेंगे तथा pending नहीं डालेंगे?
यदि आदेश कर भी दिया तो कितने अधिकारी ऐसे बचे हैं जिनके आदेश को थानाध्यक्ष/तहसीलदार/BDO पढ़ेंगे तथा लागू करेंगे?
योगी जी के बार-बार आदेशों के बावजूद तथा Print एवं Electronic media में पूर्ण coverage के बावजूद 100 के ऊपर IAS officers ने अपनी property का विवरण तक नहीं दिया फिर DM/Commissioner तथा SSP/DIG के आदेशों को कौन पढ़ता है?
विश्वास न हो तो trial के लिए अपने 10 शिष्यों को योगी जी 10 जिलों में SSP तथा DM के पास कल्पित समस्याओं के साथ भेज दें तथा उनकी पॉकेट में एक spy camera वाली पेन लगा दें पहले तो DM/SSP से मुलाकात हो, वे आदेश करें तथा इतना व्यवधान पार करने के बाद जब थाने पहुंचेगा तथा जैसे ही DM/SSP का आदेश दिखाएगा 10%थानाध्यक्ष भले पढ़ लें तथा 2%कार्यवाही कर दें किंतु 90% थानाध्यक्ष यदि बदमुजन्ने हुए तो उसे सादर परामर्श देंगे कि इतने महान आदेश को वह किसी सुरक्षित गोपनीय स्थान में डाल लें तथा आराम करें, अगर शरीफ हुए तो आज-कल कह कर टरकाएँगे तथा वह कल कभी नहीं आएगा जब वे प्रकरण को देखें। झक मार कर उसे थाने के कारखास सिपाही से मिलना होगा जिसको थानाध्यक्ष नेpower of attorney दे रखी है और जो अपराध जगत में थानाध्यक्ष का ambassdor है। तब तक तो गंगा में बहुत पानी बह चुका होगा तथा हजारों गायें कट चुकी होंगी तथा छेड़खानी रोकने की मांग कर रहीं लड़कियां सामूहिक बलात्कार का शिकार हो चुकी होंगी या फिर उन पर तेजाब फेंका जा चुका होगा। फिर कहा जाएगा- MLA जनता से कटा है तथा गणेश परिक्रमा करता है। जिस तरह सभी पार्षदों के टिकट दिल्ली में बदल दिए गए उसी प्रकार हर पार्टी अपने तमाम विधायकों को anti incumbency का बहाना लेकर राजनीतिक मृत्युदंड प्रदान कर देती हैं अर्थात टिकट काट देती हैं।
पहले Allahabad, Patna, Kolkata, Mumbai जैसी यूनिवर्सिटी से लड़के IAS/IPS में थोक के भाव आते थे तथा प्रायः वह गरीब परिवारों के होते थे तथा उन्हें मालूम होता था कि दरोगा या तहसीलदार क्या चीज़ है।
अपवाद छोड़कर अब सम्पन्न घरों के लड़के जो मुखर्जी नगर या अन्य समतुल्य जगह पर बैठ कर Ivory towers में competition की तैयारी चिरकाल तक करते हैं, वे IAS/IPS में सेलेक्ट होते हैं। उनमें एक बड़ी संख्या B.Tech/ MBBS/ MBA etc. professionals की होती है जिनका पाला कभी दरोगा से नहीं पड़ा होता है। वे गरीबी तथा सत्ता के अत्याचार के बारे में JNU के किसी ढाबे में बैठकर debate करते हैं किंतु खेतों और खलिहानों की,कलों और कारखानों की जिंदगी से वे दूर होते हैं। दुर्गा शक्ति नागपाल बड़ी तेजस्वी महिला IAS अधिकारी थीं तथा बड़ा नाम कमाया, चट्टान की तरह डट गयीं तथा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तथा सचिवालय में बैठे हुए भीमकाय IAS भी उन्हें डरा नहीं पाए तथा झुका नहीं पाए। परंतु मैं आज भी उनके stand का समर्थक नहीं हूं। एक मजार/मस्जिद अवैध रूप से बन रही थी तथा उसकी दीवार को दुर्गा शक्ति नागपाल ने गिरवा दिया था किंतु इस तथ्य को उन्होंने नजरअंदाज कर दिया कि सारे फसाद की जड़ एक लेखपाल था जिसकी संस्तुति पर मजार/मस्जिद बनाने की अनुमति दी गई थी जो बवाल मचाने पर बाद में निरस्त की गई।
प्रश्न है कि जिस लेखपाल के गंदे कृत्य के चलते एक IAS का suspension हुआ, शायद DM भी हटे, CM तक की थू-थू हुई उस लेखपाल का कुछ नहीं बिगड़ा। "नीचे लेखपाल ऊपर राज्यपाल" का नारा देहातों में प्रसिद्ध है। जितनी भी शांति व्यवस्था की समस्याएं पैदा होती है या हत्याओं की स्थिति आती है उनमें से कम से कम 80% मामलों में सारे फसाद की जड़ लेखपाल होता है तथा प्रायः उसका कुछ नहीं बिगड़ता।
मातहतपरस्ती यहां तक तो जायज है कि वरिष्ठ अधिकारी सुनिश्चित करें कि उसके अधीनस्थों का अनावश्यक/अवैधानिक उत्पीड़न किसी दबाव में न हो। किंतु बीट सिपाही से लेकर CO तक तथा लेखपाल से SDM तक के कार्य तथा आचरण की समीक्षा किए बिना यदि वह धैर्यपूर्वक जनप्रतिनिधि से Inputs न प्राप्त करके उनसे ताल ठोक देता है, तो उस IAS/IPS के कार्य तथा आचरण को मैं लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन करने वाला मानता हूं। ऐसे ही बहादुरों को लक्ष्य करके डॉ. लोहिया ने अपने कार्यकर्ताओं को ललकारा था "जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करती" और "भीड़ को अनियंत्रित होने का अधिकार है।"

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