चले तीव्र वेग से धरा की ओर यमदूत,
आने लगी निकट थी पावन वसुन्धरा |
होने दृष्टिगोचर लगा है देश भारत भी,
भूमि पर करने लगा है मन को हरा |
श्याम वर्ण मेघ छतरी सी तानते हैं कभी,
कभी दिनराज ने प्रचण्ड ताप है भरा |
कभी रजनीश ने लुटा के चारू चन्द्रिका को,
सभी जड़ चेतन का परिताप है हरा | | 53 | |
दूर दिखने लगी वसुन्धरा परी सुरम्य,
चारों ओर दिव्य पारावार लहराता था |
अनुपम छठा भूधरों की मन मोहती थी,
सुखद समीरण झकोर बलखाता था |
भाति-भाति रंग के प्रसून हँसते थे और,
मधुप समूह भी रसीले गीत गाता था |
द्रुम-दल झूमता था पवन निदेश पाके,
बार-बार एक दूसरे से टकराता था | | 54 | |
सुमन न बूटेदार साड़ी पहने थी धरा,
नदियाँ न मोतियों के हार तन भाते थे |
शैल के शिखर नही उन्नत उरोज मंजु,
सर-सरसिज नहीं चरण सुहाते थे |
मधुप समूह घूमते थे नहीं चारों ओर,
श्याम घन के समान केश लहराते थे |
कुंद कलियाँ न श्वेत आभा छिटकी थी मानो,
दशन समूह रूप अपना दिखाते थे | | 55 | |
आगे बढ़े ज्यों ही यमदूत धरती की ओर,
दृष्टिगत होती गयी भारत वसुन्धरा |
सारे महिमंडल में रूप इसका अनूप,
जगत प्रसिद्ध यही शस्य
श्यामला धरा |
शीश पर रजत किरीट
शैल राज का है,
पहनाया प्रकृति ने
परिधान है हरा |
श्वेत मोतियों की
माल डाली जह्नुजा ने रम्य,
भानुजा की नील
मालिका से वक्ष है भरा | | 56 | |
#_क्रमशः
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