#_प्रतीक्षा
यह प्रतीक्षा रह न पायेगी अकारथ,
मैं किसी संभावना में जी रहा हूँ |
मैं सदा ही द्वार रखता मुक्त मन के
कौन जाने किस दिवस पर आगमन हो,
किस दिवस बंध दिव्य बंदनवार जाएं
और फिर विश्वास का जय से वरण हो,
पूर्ण होती एक दिन मन की लगन है
बस इसी ही साधना में जी रहा हूँ |
लौट आते एक दिन तो दूर-वासी
मान्यता मेरी अभी तक तो यही है
और इसके बाद भी कुछ बात ऐसी
जो नही मैंने किसी से भी कही है,
सत्य मुझसे रूठ कर मचला हुआ है
मैं लजीली कल्पना में जी रहा हूँ |
अब नही संदेश मिल पाते मुझे हैं
अब नही आभास देती हैं दिशाएं,
किन्तु ऊषा आज भी कुछ गुनगुनाती
फुसफुसाती कान में अब भी निशाएँ,
भाव तो अब भी वहीं तुम हो जहाँ पर
मैं यहाँ तो भावना में जी रहा हूँ |
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