देखा यमराज ने सकल यमदूत आये,
त्राहिमाम, त्राहिमाम, त्राहिमाम करते |
गिरते हैं उठते हैं फिर गिरते हैं कभी,
करुण कराह बार-बार आह भरते |
पाश की न सुधि आस जीवन की भी न रही,
शोणित फुहारें तन आनन से झरते |
अंग-अंग शिथिल हुए हैं हुए ढीले मन,
इधर-उधर आये निज पद धरते | | 89 | |
देखा यमराज ने त्रिशूल शिव शंकर का,
बार-बार गणों पे प्रहार करता हुआ |
करता घमण्ड-गढ़ चूर एक पल ही में,
साहस अपार, उर धैर्य हरता हुआ |
विद्युत सा चमक रहा है बार-बार और,
सबके हृदय मध्य भय भरता हुआ |
लोचनों से अवलोक सकता उसे न कोई,
चारों ओर ऐसा दिव्य तेज धरता हुआ | | 90 | |
देखा यमराज ने त्रिशूल का अनन्त रूप,
अन्तर का सारा दम्भ जाने कहाँ खो गया |
नष्ट हुई अहं की भावना समस्त और,
मन में है मानो भय का ही बीज बो गया |
शून्य हो गया समस्त बुद्धि का विवेक तथा,
जगी उर भीरुता व साहस है सो गया |
समझ न पाये किस भांति करें रक्षा निज,
वीरता गम्भीरता का सारा ओज धो गया | | 91 | |
देखा यमराज ने त्रिशूल का प्रबल कोप,
कोटि चंचलाये एक साथ दीप्त होती थी |
छुटते असंख्य थे अंगार के समूह और,
चिनगारियां अनेक अग्नि बीज बोती थीं |
बार-बार द्युतिमान होती थी दिशायें मानों,
अग्नि किरणें समस्त यमलोक धोती थीं |
देख के चकित सारा यम दरबार हुआ,
नारियां सकल धैर्य खोती हुई रोती थी | | 92 | |
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