है अजब परिवार ही
मैंने बसाया,
भावना से वेदना को
है मिलाया |
शून्य ने अस्तित्व
को ऐसी नियति दी
कर्म ने ही कामना की
गति निभाई |
बन गयी करुणा स्वयं
वरुणा हृदय की,
अब न अभिलाषा
प्रणय-पथ पर विजय की,
है नहीं लगती असंगति
भिन्नता भी
प्यास मन की छू
नयन-जल मुसकराई |
जानता हूँ है न संभव
रोक पाना,
पर विदा के हित न
आवश्यक बहाना,
मानता हूँ व्यग्र
गलबाहें प्रथा हैं
और ये रीता प्रणीता
है प्रथाई |
कब मिलोगी फिर,
स्वयं में एक उत्तर,
प्रश्न उत्तर का
क्षितिज का कांपता स्वर,
सत्य का कौमार्य
अपने में समेटे
स्वप्न की संयोगिता
लोलुप लुनाई |
यह मिलन की चाह है
मेरी विवशता,
यह विवशता जिन्दगी
की है सरसता,
यह सरसता मैं
मरुस्थलि को न दूंगा
लहर गंगा की कभी आयी
न आयी |
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