Monday, 21 August 2017

तुम मुझे अब किस तरह दोगी बिदाई |


है अजब परिवार ही मैंने बसाया,
भावना से वेदना को है मिलाया |
शून्य ने अस्तित्व को ऐसी नियति दी
कर्म ने ही कामना की गति निभाई |

बन गयी करुणा स्वयं वरुणा हृदय की,
अब न अभिलाषा प्रणय-पथ पर विजय की,
है नहीं लगती असंगति भिन्नता भी
प्यास मन की छू नयन-जल मुसकराई |

जानता हूँ है न संभव रोक पाना,
पर विदा के हित न आवश्यक बहाना,
मानता हूँ व्यग्र गलबाहें प्रथा हैं  
और ये रीता प्रणीता है प्रथाई |

कब मिलोगी फिर, स्वयं में एक उत्तर,
प्रश्न उत्तर का क्षितिज का कांपता स्वर,
सत्य का कौमार्य अपने में समेटे
स्वप्न की संयोगिता लोलुप लुनाई |

यह मिलन की चाह है मेरी विवशता,
यह विवशता जिन्दगी की है सरसता,
यह सरसता मैं मरुस्थलि को न दूंगा

लहर गंगा की कभी आयी न आयी | 

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