Saturday, 12 August 2017

सम्मोहन

मेरा मन जिसकी छवि में लय रहता आठोयाम |

वही तुम्हारा सम्मोहन है, वही तुम्हारा धाम ||


वही तुम्हारी सुस्मृतियों का है मोहक संगीत,

वही तुम्हारी रीति-प्रीति की है पट-कथा पुनीत,

कुछ ऐसी उलझन में मेरे बीत रहे दिन व्यग्र,

मुझको फिसलन दे जाता है रसभीना नवनीत,

अरुण ऊषा आ जिसे द्वार पर बिदा दे रही मौन,

यह क्या उसको ही आमंत्रण देती है हर शाम |


किस-किस गति को याद करूं मैं, वे अनबोले बोल,

वर्तमान पर डाल आवरण, द्वार गये थे खोल,

कितना धनी अतीत, न इसका है मुझको अनुमान

कितना व्यग्र भविष्य मेघ-सा रहा चतुर्दिग् डोल,

उहापोह ही पंथ बन गयी, प्रणति बन गयी लक्ष्य

कुरुक्षेत्र-सी नियति, हार है गया स्वयं परिणाम |


टेरुं तो कब तक टेरुं, कब इसका होगा अंत,

पतझर में मरुथल में उतरेगा कब प्रणय बसंत,

रति की बात न मुझसे पूछो मेरा स्वजन अनंग

मिलनातुरा घिरी गलबाहें मेरी प्यास अनंत,

श्वास-सधे झुरमुट की साधें, पूछ रही हैं प्रश्न



क्या यह संभव नहीं यहीं पर करो आज विश्राम |

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