मेरा मन जिसकी छवि में लय रहता आठोयाम |
वही तुम्हारा सम्मोहन है, वही तुम्हारा धाम ||
वही तुम्हारी सुस्मृतियों का है मोहक संगीत,
वही तुम्हारी रीति-प्रीति की है पट-कथा पुनीत,
कुछ ऐसी उलझन में मेरे बीत रहे दिन व्यग्र,
मुझको फिसलन दे जाता है रसभीना नवनीत,
अरुण ऊषा आ जिसे द्वार पर बिदा दे रही मौन,
यह क्या उसको ही आमंत्रण देती है हर शाम |
किस-किस गति को याद करूं मैं, वे अनबोले बोल,
वर्तमान पर डाल आवरण, द्वार गये थे खोल,
कितना धनी अतीत, न इसका है मुझको अनुमान
कितना व्यग्र भविष्य मेघ-सा रहा चतुर्दिग् डोल,
उहापोह ही पंथ बन गयी, प्रणति बन गयी लक्ष्य
कुरुक्षेत्र-सी नियति, हार है गया स्वयं परिणाम |
टेरुं तो कब तक टेरुं, कब इसका होगा अंत,
पतझर में मरुथल में उतरेगा कब प्रणय बसंत,
रति की बात न मुझसे पूछो मेरा स्वजन अनंग
मिलनातुरा घिरी गलबाहें मेरी प्यास अनंत,
श्वास-सधे झुरमुट की साधें, पूछ रही हैं प्रश्न
क्या यह संभव नहीं यहीं पर करो आज विश्राम |
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