Sunday, 13 August 2017

पकड़ो हाथ, बना लो बंदी

  

वेदाभ्यास किया करता था, विषय-वासना से रह मुक्त |

हुई अवतरित रत्न राशि-सी, रूप, शील, सुषमा से युक्त ||

प्रथम दर्श के साथ हृदय की, शांति सुनीता नष्ट हुई |

नयी दिशा पायी चिंतन ने, या मति-गति थी भ्रष्ट हुई ||


तन की छवि, मन की गति, मुझको इतना ज्यादा मोह गयी|

सहज साधना-रत प्रज्ञा ही, कर मुझसे विद्रोह गयी ||

दृष्टि तुम्हारी चन्द्र-किरण बन, मन-मनसिज को जगा गयी |

सुप्तप्राय चेतना, वेदना जागी मन में एक नयी ||


नैषध की पंक्तियाँ उभर कर, मानस-पट पर थी छायीं |

प्रतिक्रिया में मन-मरुथल में, जीवन-लहरी लहरायी ||

मधुर चतुर्भुज का प्रसंग भी, तभी मुझे आया था याद |

अब तक मिला प्रसाद ज्ञान का, अब प्रसाद का था उन्माद ||


सब कुछ बहक गया, सब बदला, था अतीत अनजान बना |

सोचा नही कृष्णप्रेषण का, था भविष्य अनुमान बना ||

तृप्ति अप्तृति बनी या मेरा तोष आत्म-व्यवधान बना |

यह परिवर्तन प्रश्न बना, था आमंत्रण आह्वान बना ||


कल क्या होगा इसका मुझको किंचित भी अनुमान नहीं |

वर्तमान की यह प्रतीति है, भावी की पहचान नहीं ||

साथ तुम्हारे सूत्रपात है, सरस स्वप्न की छड़ियों का |

पकड़ो हाथ बना लो बंदी, इन कोमल हथकड़ियों का ||

   

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