वेदाभ्यास किया करता
था, विषय-वासना से रह मुक्त |
हुई अवतरित रत्न
राशि-सी, रूप, शील, सुषमा से युक्त ||
प्रथम दर्श के साथ हृदय की, शांति सुनीता नष्ट हुई |
नयी दिशा पायी चिंतन
ने, या मति-गति थी भ्रष्ट हुई ||
तन की छवि, मन की
गति, मुझको इतना ज्यादा मोह गयी|
सहज साधना-रत
प्रज्ञा ही, कर मुझसे विद्रोह गयी ||
दृष्टि तुम्हारी
चन्द्र-किरण बन, मन-मनसिज को जगा गयी |
सुप्तप्राय चेतना,
वेदना जागी मन में एक नयी ||
नैषध की पंक्तियाँ
उभर कर, मानस-पट पर थी छायीं |
प्रतिक्रिया में
मन-मरुथल में, जीवन-लहरी लहरायी ||
मधुर चतुर्भुज का प्रसंग भी, तभी मुझे आया था याद |
अब तक मिला प्रसाद
ज्ञान का, अब प्रसाद का था उन्माद ||
सब कुछ बहक गया, सब
बदला, था अतीत अनजान बना |
सोचा नही
कृष्णप्रेषण का, था भविष्य अनुमान बना ||
तृप्ति अप्तृति बनी या मेरा तोष आत्म-व्यवधान बना |
यह परिवर्तन प्रश्न
बना, था आमंत्रण आह्वान बना ||
कल क्या होगा इसका
मुझको किंचित भी अनुमान नहीं |
वर्तमान की यह
प्रतीति है, भावी की पहचान नहीं ||
साथ तुम्हारे
सूत्रपात है, सरस स्वप्न की छड़ियों का |
पकड़ो हाथ बना लो
बंदी, इन कोमल हथकड़ियों का ||
No comments:
Post a Comment