अनुसूचित जाति एवं जन जाति अत्याचार निवारण संशोधन अधिनियम 2015
की समीक्षा
निहितार्थ एवं संभावित दुष्परिणाम
मनुवादी पार्टी का वर्णाश्रम
व्यस्था में विश्वास है किन्तु वर्णाश्रम व्यस्था जाति व्यवस्था नहीं है | अछूत
शब्द भारतीय संस्कृति के विरूद्ध है तथा जो लोग वर्ण व्यवस्था को और जाति व्यवस्था
को भ्रमवश पर्यायवाची मानते हैं उन्हें भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सबसे अधिक
आलोचना का शिकार पुरुष सूक्त भी यह मानता है कि जिस विराट पुरुष के मुह से
ब्राह्मण निकला, बांह से क्षत्रिय निकला, जांघ से वैश्य निकला, उसी विराट पुरुष के
पैर से शूद्र उत्पन्न हुआ | स्पष्ट है कि ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य तथा शूद्र का
उदगम स्थान एक है तथा वे परस्पर भाई है | 'पद्भ्याम शूद्रो अजायत' की स्वाभाविक
परिणति है कि शूद्र को 'अन्त्यज' अर्थात छोटा भाई माना गया है | महर्षि दयानन्द ने
उद्घोषणा की है कि 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम' अर्थात आर्य समाज का घोषित लक्ष्य है
कि सारे संसार को आर्य बनाना है | अतः इसे नस्ल भेद से हम नहीं जोड़ सकते | यदि कोई
काला अफ्रीकन या भारतीय अंग्रेज बनाना चाहता तो अंग्रेज उसे इसाई भले बना लेते
किन्तु अंग्रेज न बनाते | अगर आर्य कोई नस्ल होती तो वह किसी को आर्य न बनाती |
आर्य का अभिप्राय संस्कार से है | इसीलिए शास्त्र बचन है कि 'संस्काराद द्विज
उच्यते' अर्थात संस्कार के आधार पर किसी को द्विज कहा जाता है |
फिर भी जो वर्ण व्यवस्था की
आलोचना करते हैं उनसे निवेदन है कि वर्ण व्यवस्था तथा जाति वयवस्था में वही अंतर
है जो अंतर RSS और गोडसे में है - जो अंतर मौलाना मदनी तथा ISIS में है | कहीं पर
dividing line thin हो सक्ती है किन्तु यह visible है तथा इसे नकारा नहीं जा सकता
है | इसी लिए महात्मा गाँधी से लेकर गुरूजी गोलवलकर तक सबने वर्ण व्यवस्था की
सराहना की है | यह अलग बात है कि मायावती कांग्रेस तथा भाजपा को मनुवाद की A तथा B
टीम मानती है तथा गाँधी को शैतान की औलाद घोषित करती हैं |
कांग्रेस ने Civil Rights Act
पारित कराया जोकि संविधान की भावना के अनुरूप था तथा अस्पृश्यता को समाप्त करने के
लिए तथा इसके किसी भी रूप में पालन को दण्डनीय बनाने के लिए अभिप्रेत था | किन्तु
वोट बैंक की राजनीति ने इसको अव्याहारिक रूप प्रदान किया तथा यह अपने उग्रतम रूप
में 2015 में पारित हुआ जिससे सामाजिक ताने बाने के ध्वस्त होने की स्थिति आ सकती
है | मै इस पर कोई value judgment नहीं दे रहा वल्कि कुछ यक्ष प्रश्न प्रस्तुत कर
रहा हूँ जिन पर सभी बुद्धजीवियों को सोचने की आवश्यकता है |विशेष रूप से अनुसूचित जाति
एवं जन जाति के लोगों को भी इस पर गंभीरता से सोचना होगा कि कहीं इसके प्रावधानों
का अनुपालन उनको समाज की मुख्य धारा से अलग थलग तो नहीं कर देगा
(1) पहला प्रश्न यह है कि burden of proof को shift कर दिया गया है तथा
presumption clause जोड़ दिया गया है अर्थात अनुसूचित जाति के व्यक्ति को अब
साक्ष्य देने की आवश्यक्ता नहीं रहेगी कि उसके साथ कोई अपराध हुआ है | यह
'ब्रह्म्वाक्यम जनार्दनं' का अंग्रेजी
अनुवाद है जिसका अर्थ है कि ब्राह्मण के मुह से निकला हुआ वाक्य विष्णु के मुख से
निकला हुआ वाक्य है तथा उसके लिए किसी साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है तथा वह स्वयं
में प्रमाण है क्योंकि ब्राह्मण के मुह से कोई झूठी बात निकल ही नहीं सकती | इसी
प्रकार इस presumption clause का अर्थ है कि अनुसूचित जाति/जन जाति के मुख से जो
वाक्य निकल जाये उसकी सत्यता की समीक्षा
करने का अधिकार I.O. (विवेचक) को नहीं है क्यों कि उसे अनुसूचित जाति के व्यक्ति
से कोई प्रमाण मांगने का अधिकार नहीं है | जिस व्यक्ति पर आरोप लगा है यह उसकी
जिम्मेदारी है कि वह अपने को निर्दोष सिद्ध करे | आधुनिक jurisprudence में इस
प्रकार की अवधारणा के लिए कोई स्थान नहीं है | ऐसा प्रावधान केवल दहेज़ हत्या जैसे
मामलों में है जिनके व्यापक दुरूपयोग के बारे में माननीय उच्चतम न्यायालय तक को कई
बार टिप्पणी करनी पड़ी है | Roman Jurisprudence के अनुसार एक व्यक्ति को तब तक
निर्दोष माना जाता है जब तक कि वह दोषसिद्ध न हो जाय किन्तु इस अधिनियम में बिना आरोप
की सत्यता को परखे तथा बिना किसी साक्ष्य के मात्र आरोप के अधार पर किसी को दोषी
मान लिया जाता है | क्रमशः ....
No comments:
Post a Comment